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दो मित्र पैसा कमाने मुम्बई गए थे।
तीन साल मेहनत करके खूब पैसा कमाया और वापिस घर की ओर चले।
रास्ते में एक के मन में लालच आ गया।
दूसरे को मार कर,
उसका सारा पैसा निकाल लिया और लाश को चलती रेल से गिरा दिया।
ऐसा कर, वह अपने गाँव आ गया।
अपने मित्र के बारे में झूठ बोल कर,
खुद ठाठ से रहने लगा।
एक घर बनाया, नया व्यापार किया,
विवाह हुआ, एक बेटा भी हुआ,
पर बेटा जन्म से ही बीमार रहता था।
उसका ईलाज कराने के लिए वह कहाँ कहाँ नहीं गया पर बेटा ठीक नहीं हुआ।
योंही बीस साल बीत गए।
ईलाज कराने में सारा पैसा लग गया,
मकान दुकान सब बिक गया।
एक रात जब उसका बेटा तीन दिन से बेहोश था,
आधी रात उस बेटे ने आँखें खोलीं।
वह बेटे के पास ही था, जाग रहा था।
बेटे के सिर पर हाथ फिराता हुआ,
रोते हुए बोला- भगवान का शुक्र है,
जो तूं होश में आ गया।
बेटा चिल्ला कर बोला- मैं तो आ गया होश में, तूं अभी तक नहीं आया?
बाप बोला- मेरे बच्चे!
तूं क्या कहता है?
तूं ठीक हो जाएगा।
सब ठीक हो जाएगा।
तूं चिंता मत कर।
मैं तेरे पास ही हूँ।
बेटा बोला- तूं कौन है मेरा?
मैं तेरा कौन हूँ?
पहचान मुझे!
क्या तूं मुझे नहीं पहचानता?
बाप बोला- तूं मेरा बेटा है,
मैं तेरा बाप हूँ।
तूं मुझे क्यों नहीं पहचानता?
बेटा गरज कर बोला- मैं तो पहचानता हूँ,
तूने ही नहीं पहचाना।
देख मेरी ओर,
पहचान मुझे!
बाप उसका सिर दबाने लगा।
रोते रोते बोला-
देख तो रहा हूँ।
तूं मेरा बेटा है।
बेटा- अब देख मैं कौन हूँ?
बेटा उठ कर बैठ गया,
आँखें बाहर निकल आईं,
चेहरा बदल गया,
उसी पुराने मित्र का चेहरा आ गया।
बोला-
मैंने तुझे एक पल भी चैन से बैठने नहीं दिया।
मैंने तुझसे अपना पाई पाई पैसा वसूल लिया है।
दो सौ दस रुपए बचे हैं,
उनसे मेरा संस्कार कर देना।
ऐसा कह कर वह पछाड़ खाकर गिरा,
और मर गया।
लोकेशानन्द कहता है कि यह जगत एक लेन-देन की मंडी है।
यहाँ सभी अपना लेन-देन चुकाने आए हैं।
जब तक लेन-देन बाकी है,
तब तक संबंध है।
खाता बराबर,
संबंध बराबर।
यहाँ कौन किसी का क्या ले जाएगा?
यहाँ दूसरे को धोखा देने की कोशिश करने वाला, दूसरे को नहीं,
अपने आप को ही धोखा देता है।
ऐसे में ईमानदारी ही सर्वश्रेष्ठ नीति है।
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