
एक हफ़्ते तक अस्पताल में अपनी बीमार माँ के पास दिन-रात जागते हुए……
मैंने कभी नहीं सोचा था कि मेरी गैरमौजूदगी में मेरे पति का परिवार मेरे साथ ऐसा घिनौना खेल खेलेगा—दरवाज़े के ताले बदल दिए गए थे, मेरा सारा सामान सड़क पर फेंक दिया गया था और घर के भीतर एक गर्भवती औरत का स्वागत हो रहा था…
मेरा पति—अर्जुन—मुंबई का रहने वाला, पेशे से सिविल इंजीनियर, देखने में आकर्षक और बातों से दिल जीत लेने वाला। पहली मुलाक़ात में ही उसने मुझे मोह लिया था। शादी के बाद मैं हमेशा यही मानती रही कि अब मुझे अपना सच्चा आशियाना मिल गया है।
लेकिन ज़िन्दगी ने करवट बदल दी जब मेरी माँ—शांति देवी—अचानक गंभीर रूप से बीमार हो गईं। दिल का दौरा पड़ते ही उन्हें दिल्ली के बड़े अस्पताल में भर्ती कराना पड़ा। मैं उनकी इकलौती बेटी थी, इसलिए नौकरी से छुट्टी लेकर पूरा समय वहीं रुक गई।
शुरुआती दिनों में अर्जुन फ़ोन करता, हालचाल पूछता, अस्पताल के बिल के लिए पैसे भी भेजता। वह मुझे समझाते हुए कहता—
“तुम्हारी माँ भी मेरी माँ जैसी हैं… मैं चाहता हूँ कि तुम उनकी चिंता मत करो, मैं यहाँ सब संभाल लूँगा।”
उसकी बातें सुनकर मुझे हमेशा सुकून मिलता।
करीब दो महीने तक अस्पताल में रहकर माँ की देखभाल करने के बाद जब उनकी हालत सुधरने लगी तो मैंने राहत की साँस ली। सोचा—अब घर लौटकर थोड़ा चैन मिलेगा और फिर से काम भी शुरू कर दूँगी।
तपती दोपहर में जैसे-तैसे सफ़र कर मैं अपने घर पहुँची। लेकिन हैरानी की बात—मेरी चाबी ताले में फिट ही नहीं हो रही थी। जैसे किसी ने ताला ही बदल दिया हो।
दिल घबराने लगा। मैंने तुरंत अर्जुन को फ़ोन मिलाया—
“अर्जुन, ताले में दिक़्क़त है… मैं घर के बाहर खड़ी हूँ…”
फ़ोन बार-बार बजा, पर उसने उठाया ही नहीं। मैं बेचैन होकर बार-बार कॉल करती रही। तभी अचानक दरवाज़ा खुला और सामने एक औरत खड़ी थी—जिसके पेट पर साफ़ झलक रहा था कि वह गर्भवती है। उसके चेहरे पर अजीब-सी विजयी मुस्कान थी।
भीतर नज़र दौड़ाई तो मेरी सास—कमला—और कुछ रिश्तेदार फर्नीचर सजाने में लगे थे। और मेरा सारा सामान—कपड़े, किताबें, सूटकेस—बरामदे में मिट्टी और धूल में बिखरा पड़ा था।
यह नज़ारा देख मेरे पैरों तले ज़मीन खिसक गई। काँपते हुए मैंने पूछा—
“यह सब… क्या हो रहा है?”
कमला ने ठंडेपन से जवाब दिया—
“प्रिया, तुम्हें समझ लेना चाहिए। इतने महीनों से तुम अपनी माँ के पास पड़ी रही और घर की तरफ़ ध्यान ही नहीं दिया। अर्जुन किसी के सहारे के बिना नहीं रह सकता। यह अंकिता है—वह हमारे घर की नई बहू है और हमारे वंश की माँ बनने वाली है। अब तुम्हें अपनी जगह पहचान लेनी चाहिए।”
मैं निशब्द थी। दिल में सिर्फ़ दर्द का सैलाब उमड़ रहा था।
तो जब मैं अपनी माँ को मौत के दरवाज़े से वापस खींचने की जद्दोजहद कर रही थी, मेरा अपना पति किसी और औरत को घर ले आया। और उसके परिवार वालों ने सब मिलकर मुझे बेघर कर दिया।
अर्जुन कमरे से बाहर आया, मेरी तरफ़ देख भी न पाया। धीमे स्वर में बोला—
“प्रिया… हालात यहाँ तक पहुँच गए हैं। अब तुम इसे और मुश्किल मत बनाओ। सच मान लो और आगे बढ़ो।”
उसकी ये बातें मेरे लिए किसी ज़हरीले तीर से कम नहीं थीं। आँसू सूख चुके थे, पर दिल में आग भड़क उठी थी।
कुछ ही पलों में मैंने सब कुछ खो दिया—अपना घर, अपना रिश्ता, और सबसे बढ़कर अपना विश्वास।
उस वक्त मेरे दिल में बस एक ही वाक्य गूंज रहा था—
“जिसने मुझे धोखा दिया है, उसे मैं उसकी सज़ा ज़रूर दिखाऊँगी…”
मैंने अपने बिखरे सामान को चुपचाप समेटा और घर से निकल पड़ी। उस वक़्त मेरी आत्मा टूट चुकी थी, लेकिन कहीं गहराई में आग जल रही थी।
रेलवे स्टेशन की बेंच पर बैठी, आँसुओं से धुंधले आसमान को देखते हुए मैंने कसम खाई—
“अब मैं किसी पर बोझ नहीं बनूँगी। अब मुझे खुद को साबित करना है।”
कुछ ही दिनों में मैंने पुणे की अपनी नौकरी फिर से पकड़ ली। पर इस बार मैं वही प्रिया नहीं थी—जो केवल पति और ससुराल के भरोसे जीती थी। अब मैं हर पल अपनी ताक़त बढ़ाने लगी। ऑफिस में मेहनत, नए कोर्सेज़, और खुद को सँवारना—मैंने अपनी ज़िन्दगी को नया मोड़ देना शुरू कर दिया।
धीरे-धीरे मेरी काबिलियत चमकने लगी। कम्पनी ने मुझे बड़े प्रोजेक्ट का हेड बना दिया। लोग मुझे “स्टील वुमन” कहने लगे—क्योंकि मैंने दर्द को हथियार बना लिया था।
करीब डेढ़ साल बाद, एक कॉन्फ्रेंस के लिए मुंबई पहुँची। मंच पर मेरा नाम पुकारा गया—
“मैडम प्रिया मेहरा, चीफ़ आर्किटेक्ट ऑफ़ द ईयर…”
तालियों की गड़गड़ाहट में मैं मंच पर पहुँची। और तभी भीड़ में मेरी नज़र अर्जुन पर पड़ी। वह थका-हारा, बिखरा हुआ-सा दिख रहा था। उसके बगल में खड़ी वही औरत—अंकिता—गोद में बच्चा लिए, आँखों में नाराज़गी और ताने भर रही थी।
हमारी नज़रें मिलीं। उसकी आँखों में पछतावा था, लेकिन मेरी नज़रों में सिर्फ़ ठंडा सन्नाटा।
कॉन्फ्रेंस खत्म होते ही वह मेरे पास आया—
“प्रिया… मुझे एक मौका दो। मैंने गलती की थी। मैं आज भी तुम्हें चाहता हूँ…”
मैंने बिना एक शब्द कहे, बस मुस्कराकर जवाब दिया—
“अर्जुन, तुम्हें समझना चाहिए था कि औरत सिर्फ़ पत्नी नहीं होती, वह एक इंसान भी होती है। जो एक बार टूटकर उठ खड़ी हो जाए, उसे फिर कोई गिरा नहीं सकता।”
इतना कहकर मैं मुड़ी और भीड़ में खो गई।
उस क्षण मुझे एहसास हुआ—मैं अब अकेली नहीं हूँ, मैं अपने आत्मसम्मान के साथ हूँ। और वही मेरा सबसे बड़ा सहारा है।