आस्था, प्रदूषण और राजनीति — छठ पर्व की बदलती परिधि
पूर्वांचल की मिट्टी में रचे-बसे लोकपर्व छठ का स्वरूप अब सीमाओं से परे पहुँच चुका है।
बिहार और पूर्वी उत्तरप्रदेश की यह आस्था आज दिल्ली, मुंबई, कोलकाता, अहमदाबाद जैसे महानगरों की नदियों और तालाबों के किनारों पर भी उतनी ही श्रद्धा से झलकती है।
जितनी गंगा के तटों पर। प्रवासियों ने जहाँ-जहाँ अपना घर बसाया, वहाँ छठ ने अपनी लोक-सुगंध फैलाई।
परंतु यह भी उतना ही सच है कि जब-जब आस्था जनमानस को एक करती है, सत्ता उसे विभाजित करने की चतुर कोशिश करती है।
छठ केवल व्रत या पर्व नहीं है, यह शुद्धता, संयम और सामूहिकता का उपासना उत्सव है।
इस पर्व में बाजार का दिखावा नहीं, बल्कि घर-आँगन की सादगी और प्रकृति के प्रति कृतज्ञता प्रमुख रहती है।
यह वही पर्व है जहाँ गन्ने, मूली, अदरक, केले जैसे देशज उपज को सम्मान मिलता है — और जहाँ पूरा परिवार नदी की स्वच्छता, अन्न की पवित्रता और सूर्य की आराधना में एकाकार होता है।
लेकिन, दुखद है कि राजनीति ने इस लोकभाव में भी अपने प्रचार की दीवारें खड़ी कर दी हैं।
हिन्दी पट्टी की सियासत अब धर्म-भावना आधारित राजनीति की ओर जिस तीव्रता से बढ़ी है, उसका असर लगभग हर त्योहार पर दिखता है।
पहले जहाँ भाजपा ने राममंदिर आन्दोलन को अपने जनाधार का आधार बनाया था।
अब मंदिर निर्माण के बाद वही राजनीति त्योहारों के मंच पर उतर आई है।
नवरात्रि पर व्रत, दीपावली पर दीये, और अब छठ पर अर्घ्य — ये सब निष्ठा से अधिक ‘नरेटिव’ बन गए हैं।
दिल्ली में इस वर्ष छठ पूजा के अवसर पर यही दृश्य और भी मुखर था।
मुख्यमंत्री से लेकर पार्षद तक ‘अर्घ्य देते’ कैमरों में कैद होते रहे।
राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू की छठ आराधना की तस्वीरें भी सोशल मीडिया पर व्यापक रूप से साझा की गईं।
मगर इस धार्मिक सजावट के बीच जो सबसे बड़ा सवाल उठ खड़ा हुआ, वह था — क्या यह श्रद्धा है या रणनीति?
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का वासुदेव घाट पर अर्घ्य देने का कार्यक्रम आख़िरी समय में रद्द होना इस सवाल को और तीखा बना गया।
भाजपा समर्थित मीडिया ने पहले से ही प्रचार का माहौल बना दिया था कि ‘प्रधानमंत्री आएंगे तो साफ़ यमुना का नया युग शुरू होगा’।
लेकिन ‘साफ़ यमुना’ के दावे को आम आदमी पार्टी और स्वतंत्र पत्रकारों ने पल भर में झुठला दिया।
सामने आया कि प्रधानमंत्री के लिए एक नकली घाट तैयार किया गया था, जिसमें बाहर से स्वच्छ जल डलवाया गया था।
यह दृश्य राजनीति के उस खोखलेपन को उजागर करता है जहाँ नदी की गंदगी नहीं, उसकी छवि धोने की चिंता अधिक होती है।
दिल्ली प्रदूषण नियंत्रण समिति की रिपोर्ट इस दिखावे पर मुहर लगाती है — शहर के अधिकांश हिस्सों में यमुना का जल स्नान योग्य नहीं है।
अमोनिया और बीओडी का स्तर खतरनाक रूप से ऊँचा है।
भाजपा ने जिस ‘स्वच्छ यमुना अभियान’ का प्रचार किया, वह भी केवल कैमरे की चौखट तक सीमित रहा।
उल्टे, वही रासायनिक छिड़काव किया गया जिसे केजरीवाल सरकार के समय भाजपा विरोध करती रही थी।
सच तो यह है कि यमुना की दुर्दशा केवल एक दल की असफलता नहीं है; यह जनता और सत्ता दोनों की संवेदनहीनता का परिणाम है।
हमने नदी को केवल ‘प्रशासनिक जिम्मेदारी’ मान लिया, जबकि यह सांस्कृतिक उत्तरदायित्व भी है।
यदि समाज अपने जलस्रोतों की रक्षा से विमुख हो जाए तो शासन चाहे जितने स्वच्छता अभियान चलाए, परिणाम स्थायी नहीं होंगे।
छठ पर्व हमें हर वर्ष यही स्मरण कराता है — नदियाँ केवल जलधारा नहीं, जीवनधारा हैं।
जब तक हम स्वयं मिट्टी, जल और वायु की स्वच्छता को अपनी दिनचर्या का हिस्सा नहीं बनाएँगे, तब तक कोई भी सरकार या नेता हमें स्वच्छता का ‘दर्शन’ नहीं करा सकते।
आज आवश्यकता है कि छठ की आराधना को राजनीति की भीड़ से निकालकर फिर उस लोकविश्वास से जोड़ा जाए, जहाँ सूर्य को अर्घ्य देने से पहले मन और परिवेश दोनों को निर्मल करने की भावना थी।
क्योंकि जहाँ आस्था सच्ची हो, वहाँ दिखावे की राजनीति टिक नहीं सकती — और जहाँ नदी पवित्र हो, वहाँ समाज भी जीवंत रहता है।

