
माँ की मौत के बाद जब तेरहवीं भी निपट गई,
तब गौरी ने अपने भाई से विदा लेने के लिए नम आँखों से कहा, “सब काम हो गए भैया,
माँ चली गई अब मैं चलती हूँ।”
आँसुओं के कारण उसके मुंह से केवल इतना ही निकला।
भैया ने उसकी बात सुनकर कहा,
“रुक गौरी,
अभी एक काम बाकी है।
ये ले माँ की अलमारी की चाभी और जो भी सामान चाहिए,
ले जा।”
चारु ने चाभी लेने से इनकार करते हुए भाभी को चाभी पकड़ा दी और कहा,
“भाभी,
ये आपका हक है,
आप ही खोलिए।”
भाभी ने भैया की स्वीकृति पर अलमारी खोली।
भैया बोले,
“देख ये माँ के कीमती गहने और कपड़े हैं।
तुझे जो लेना है,
ले जा क्योंकि माँ की चीजों पर बेटी का हक सबसे ज्यादा होता है।”
चारु ने उत्तर दिया,
“भैया, मैंने हमेशा यहाँ इन गहनों और कपड़ों से भी कीमती चीज देखी है,
मुझे वही चाहिए।”
भैया ने पूछा,
“तू किस कीमती चीज की बात कर रही है,
गौरी ?
हमने माँ की अलमारी को हाथ तक नहीं लगाया,
जो भी है,
तेरे सामने है।”
गौरी ने कहा,
“भैया,
इन गहनों और कपड़ों पर तो भाभी का हक है क्योंकि उन्होंने माँ की सेवा बहू नहीं,
बेटी बनकर की है।
मुझे तो वो कीमती सामान चाहिए जो हर बहन और बेटी चाहती है।”
भाभी ने समझते हुए कहा,
“दीदी, मैं समझ गई कि आपको किस चीज की चाह है। आप फ़िक्र मत कीजिए,
माँ के बाद भी आपका ये मायका हमेशा सलामत रहेगा।
पर फिर भी माँ की निशानी समझ कुछ तो ले लीजिए।”
चारु ने भाभी को गले लगाते हुए रोते हुए कहा,
“भाभी,
जब मेरा मायका सलामत है मेरे भाई और भाभी के रूप में,
तो मुझे किसी निशानी की जरूरत नहीं।
फिर भी आप कहती हैं तो मैं ये हँसते-खेलते मेरे मायके की तस्वीर ले जाऊंगी,
जो मुझे हमेशा एहसास कराएगी कि मेरी माँ भले ही नहीं है पर मायका है।”
यह कहकर चारु ने पूरे परिवार की तस्वीर उठाई और नम आँखों से सबसे विदा ली।