
*सम्पादकीय*
✍🏾जगदीश सिंह सम्पादक✍🏾
*जो गया वो फिर लौट के आना भूल गया*!!
*शायद वो परिन्दा आशियाना भूल गया*!!
*किसी से मोहब्बत ना होती तो अच्छा होता*!!
*एक अच्छा खासा इन्सान मुस्कराना भूल गया*!!
प्रेम बांटा गया तो रामायण लिखा गया और सम्पत्ति बांटा गया तो महाभारत! बदलते युगों की अकथ कहानी का ज्ञानी यही सार बता गये है जो कल भी यही सत्य था आज भी यही सत्य है। हर रोज सच की इबारत को हकीकत के धरातल पर चल रही वर्तमान ब्यवस्था में पल बढ़ रही आस्था को देखकर कलम से चन्द लाईनों को तहरीर किया जाता है ताकी सच को लोग सतह से स्वीकार कर अपने मन के विकार का तिरस्कार कर सके!अपनों के साथ सहृदयता का व्यवहार कर सके! युग बदल रहा है! समय बदल रहा है! लोग बदल रहे हैं! हर पल भयानक मानसिक रोग बढ़ रहे हैं! जिसकी चपेट मेंआकर सम्प्रभुता सम्पन्न सम्बृध समाज में आज वैमनस्यता पांव पसार रही है!हर घर में एकता के मन्दिर में जलने वाला अखंडता का दीप स्वार्थ की बहती तेज हवा के झोंके से लपलपा लपलपा कर दम तोड रहा है!प्रेम, सदब्यवहार, आचार, विचार सब कुछ मानवीय प्रदुषण के शिकार हो गया!जरूरत भर साथ के बाद मतलब परस्ती की चादर हर कोई ओढ़ रहा है! अपना सम्बन्ध यहां से नहीं वहां से जोड़ रहा है!अजीब दास्तान गजब का बदल रहा हिन्दुस्तान है! कहा जाता है गांवों में भारत की आत्मा निवास करती है और यही मां भारती धानी चादर पहने प्रकृति के मनोहारी छटा के सानिध्य में मुस्कराती है! मगर वर्तमान हालात ने जिस तरह के सवालात सामने ला दिया है उसे देखकर तो आत्मा रोती है!जिस ग्रामीण परिवेश में भारत की संस्कृति पनाह पाती थी,जहां से भारतीय परिवेश मादकता लिए सौन्दर्य के आगोश मे महकता था!जहां से समरसता सदविचार सम्बृधि ,समानता भाई चारा बसुधैव कुटुम्बकम की दरिया वैश्विक समुदाय के लिए कौतूहल पैदा करती थी!कम संसाधन के बावजूद अपने पुख्ता वजूद को संरक्षित सुरक्षित रखने का हर कोई माद्दा रखता था!जहां मिट्टी की मकानों,घास फूस की झोपड़ी यों में रहकर प्रेम सौहार्द के ममतामई वातावरण में करूणा का संचार करता था! जाति पाति से उपर उठकर सभी के साथ समानता का ब्यवहार करता था!,माता पिता को देवता समझा जाता था! आज यह सब कुछ पूरी तरह बदल गया है! कंक्रीट के बने मकानों में रह रहे पत्थर दिल लोगों की सोच तन्हाई की वेधशाला में संकीर्णता की भट्ठी पर अपनत्व का स्लोगन तैयार कर रही है!अपनत्व के घनत्व वाले सभी पुराने फार्मूले दरकिनार हो चुके हैं!एक जमाना था जब कभी चर्चा वृद्धा आश्रम अनाथ आश्रम की शाम को चौपालों में होती थी तो गांवों में लोग सुनकर आश्चर्य करते थे! आधुनिकता पर तंज कहते थे!मगर बदलते ज़माने में जब आज यही हर घर की कहानी हो गयी है तो हर कोई सहर्ष स्वीकार कर उत्कर्ष के उफान पर चल रहे वक्त को सलाम करता हैं! बहुत कुछ बदल गया! हम शहर की बात को दरकिनार भी कर दें तो गांवों में जहां देश की आत्मा बसती है आज विरानी नजर आ रही है¡जो घर छोड़कर शहर में गया फिर कभी वापस नहीं हुआ! वो वहीं का होकर रह गया!इतना ही नहीं वह अपना धरातल भी भूल गया! बाप का प्यार, मां का आंचल भी भूल गया! गांव का गांव खंडहर हो रहा है! पुरातन संस्कृति पुरातन परम्परा का नामो निशान मिट रहा है! न अब पुराने पनघट रहे! न बागों की हरियाली रही रही! न शाम को घरों मैं चौका पर भोजन के समय प्यार से लबालब भरी भोजन की थाली रही!न अब वह तहजीब रही, न वह तमीज रही, न अब वह घूंघट की वोट से देखने वाली घर वाली रही?!सभी घरों के दरवाजे सूना पड़े हैं! महज कल के गुजरे जमाने की निशानी में नाद, खूंटा, गिरता अस्तबल, हाथियो को बांधने वाले पीलर खड़े हैं!न कोई संगत है! न कोई रंगत है! जो गांव मे घर बच गये उनके आधुनिक बंशज दारू की दवा लेकर हर शाम आपस मे हर रोज भीड़ रहे है।जाने कहां चली गयी गांवों की महकती शाम! चहकती सुबह! न अब कोयल कूकती! न पपिहा पिहिकता है! रात को उन हवेलियों में जहां कभी प्रतिष्ठा पांव पसारती थी अब सियारों का झुन्ड फुदकता है! जिनके पूत सपूत कहे जाते वो ही आज कपूत साबित हो गये!तन्हाई में रात गुजारने वाले मां बाप गुजरे कल को याद कर अश्कों की विप्लवी धारा में सारा ग़म बहा तो देते हैं लेकिन तब भी बद्दुआएं उन अपनों के ग़म से बोझिल जबान से कभी नहीं निकालते! गांव का परिवेश पूरी तरह बदहाल हो चला है;हालांकि अब हर सुबिधा से गांव भरपुर हो रहे है बावजूद न ई पीढ़ी शहर की सड़ांध भरी गली में रहकर अपने को आधुनिक समाज का हिस्सा साबित करने में अपना अस्तित्व समाप्त कर रही है!भगवान जाने इस समाजका क्या होने वाला है!जिधर देखिए दीवाला ही दीवाला है! चेहरा गोरा मगर दिल सबका काला है! सबका मालिक एक 🕉️साईंराम🙏🏾🙏🏾
जगदीश सिंह सम्पादक राष्ट्रीय अध्यक्ष राष्ट्रीय पत्रकार संघ भारत 7860503468