
*सम्पादकीय*
✍🏾जगदीश सिंह सम्पादक✍🏾
*कानों में भरा जाने वाला बातों का विष*!
*दिल में रहने वाले रिश्ते बर्बाद कर देता है*!!
रिश्तों के बाजार में फ़रिश्ते भी उस समय आवाक रह जाते है जब अपने ही एकायक रास्ता बदल देते है!
जो कल तक दिल के भीतर धड़क रहा था वहीं आज देखकर भडक रहा है।
गजब साहब कानों के भीतर बातों का घुसा जहर नाग के जहर से भी खतरनाक होता है!
उसमें आदमी न हंसता है न रोता है बस पलक झपकते ही सारे सम्बन्धों का त्याग कर देता है।
आज आधुनिकता के बदलते परिवेश में हर घर में जहरीली नागिनों का बसेरा हो गया है!
जिनको तन्हाई बहुत पसन्द है!
घर के बर्बादी में ही उनको मिलता आनन्द है!
कभी जमाना था घर का मुखिया जो कह दिया वह सारे परीवार के लिए अकाट्य आदेश हो जाता था!
मगर अब ऐसा नहीं!
मुंह से अभी शब्द मुकाम हासिल नहीं किया की जबाब हाजिर!
गजब का परिवर्तन हुआ है!
दुर्भाग्य घर घर में नर्तन कर रहा है!
जिस परिवार को सजाने संवारने में ज़िन्दगी की शाम हो चली आज वही घर खंडहर में तब्दिल होता देखकर मजधार में डूबती नौका का आभाष होने ही लगता है!
जब लोग अनपढ़ गंवार थे इतना समझदार थे की हर कार्य निश्चित समय पर पूरा कर सम्मान के साथ मातृ देवो भव: पितृ देवो भव: के संस्कारिक सामराज्य में समर्पित भाव से लगाव की उस परम्परा के वशीभूत लोगों को अभिभूत कर देते थे जिन पर घर का मुखिया नाज करता था!आज का जमाना देखिए साहब ससुर देवो भव: सास देवो भव: पत्नी देवो भव: साला सुखी भव: की परम्परा परवान चढ़ रहा है! जब गृहस्थी के बाग में आग लगाने वाले अपने हो तो बर्बादी का मंजर कुलाचे मारेगा ही!
सम्बृधि की श्रृंखला में शामिल संयुक्त परिवार की सद्बुद्धि ,समरसता, एकता ,का अहम महत्व था!
लेकिन समय के साथ हुए परिवर्तन में इस कदर वातावरण विषाक्त हो गया की हर कोई सहमा सहमा हुआ है!
जरूरत पूरा होते ही वहीं अपना जिसके भरोसे आखरी सफर का देख रहा था बूढ़ा बाप सपना कांच के तरह अकस्मात जब टूटता है तब जो मन के समन्दर में दर्द की लहर उठती है वह पश्चाताप की सुनामी बन तबाही की इबारत निश्चित ही लिख देती है!
भरोसा की दीवार जब भी टूटती तकदीर के दरवाजे पर विपत्ति अट्टहास करती है!
इन्सान के कान में जहरीले जबान से भरा जाने वाला जहर इतना विषैला होता है की बहादुर से बहादुर को भी लकवाग्रस्त कर देता है!
कभी एक मन्थरा का नाम चर्चित था अब तो मन्थरा का ही रामराज्य स्थापित हो गया है।
मन्थरा की चाल में फंसकर समझदार की भी समझदारी अकस्मात खत्म हो जाती है!
जो कुनबा कल तक शोहरत की बुलन्दी पर मुस्करा रहा था वहीं कुनबा उन्हीं अपनों की ना फ़रमानी व बेईमानी की खेल में खानदानी आबरू को मटिया मेट पलक झपकते ही कर देता है।
बेशर्मी के लिहाफ में निर्लज्जता का दामन थामे आज की घटिया सोच के सौदागर हर रिश्ते को तिजारत के भाव से देख रहे हैं!अब न भाई से भाई का प्यार रह गया!
न मां बाप से अपनत्व का व्यवहार रह गया!
तरक्की सुदा इस ज़माने मे बस हर तरफ तिरस्कार ही तिरस्कार रह गया! खत्म हो गया संयुक्त परिवार एक ही आंगन मगर सभी का अलग अलग व्यवहार न कोई बड़ा न छोटा हर सिक्का खोटा!
खून के रिश्तों में धीमा जहर घोलने वालो के आगमन के बाद महकता चमकता चमन महज चन्द दिनों में ही उजड़ता हुआ दिखने लगता है।
जो कल तक श्रद्धा समर्पण के साथ नतमस्तक रहते थे वही आज इस कदर बदल गये की सम्मान शब्द ही अपमानित हो गया!
क्या जमाना आ गया है दोस्तों?
गांव का गांव विरान होने लगा है खेत खलिहान बियाबान होने लगा है! पुरातन परम्परा धाराशाई हो गयी! संस्कृति विहीन ब्यवस्था में आस्था महत्वहीन हो गयी! तन्हा तन्हा सफर हर घर की जरूरत में शामिल हो गया! वृद्धा आश्रम भी लोगों की बेबसी पर अफसोस कर रहा है! मगर सच तो सच है। अपनों का नसीब बनाने में जीवन गुजार देने वाले बदनसीब बने वे मां बाप जिनके आखरी सफर में सिर्फ अंधेरा ही अंधेरा है अश्कों की दरिया में भीगते खुद के नसीब पर पश्चाताप करते आहें भरते गुमनामी में दम तोड जाते हैं मगर कभी बद्दुआ की बैसाखी का सहारा नहीं लेते! दिल की बस्ती विरान होने के बावजूद इन्तजार की चौखट पर कर्तब्य की अमिट इबारत तहरीर कर जाते है यह सोचकर की—— ?
हम मेहमान नहीं रौनकें महफ़िल है!——??
उल्फत मुद्दतों याद रखोगे की जिंदगी में कोई आया था!!—+??
सबका मालिक एक 🕉️साईं राम🙏🏾🙏🏾 जगदीश सिंह सम्पादक राष्ट्रीय अध्यक्ष राष्ट्रीय पत्रकार संघ भारत –7860503468