
*सम्पादकीय*
✍🏾जगदीश सिंह सम्पादक✍🏾
*गुजर रहा हूं मैं सौदागरों की बस्ती से*!!
*बदन पर देखिए कब तक लिबास रहता है*!!
मतलब परस्ती के आवरण में परवरिश पा रही आज की वर्तमान व्यवस्था के पोषक न जाने किस मुगालते में जिन्दगी के अहम पल को वहम में गुजारते चले जा रहे हैं!
जब की हकीकत के दरवाजे हमेशा खुले हैं!
सच की हवा हर पल हूंकार कर रही है!
फिर भी अहंकार की दीवार इतनी ऊंची है कि वास्तविकता के धरातल से टकरा कर वापस हो जा रही है!
दुर्भावना की काली घटा वैमनस्यता के वातावरण में माकूल मौसम पाकर रह रह कर दर्द की वारिश कर रही है!
दुर्भाग्य की तपती दोपहरी में जीवन की मादकता बिखेरती लहरी मृगतृष्णा की आभा मे जिस द्वन्द भरे वातावरण का निर्माण कर रही है उसमें निर्द्वन्द रह कर स्वक्षन्द निर्णय लेना आसान नहीं रह गया है!
जिधर देखिए चेहरा पर चेहरा लगाए लोग अपनत्व के चोला में स्वार्थ की कश्ती पर सवार भोला बना हर कोई बस मतलब के साहिल पर लंगर डालने को आतुर है। मंजिल के करीब पहुंचते ही रंगत बदल जा रही है।पराई संगत उनकी महबूब बन जा रही है।आजकल पितृ पक्ष चल रहा है आडम्बर के छत्र छाया में दिखावटी मोह-माया का खेल घर घर देखा जा रहा है!जो कल तक दो रोटी के लिए मोहताज कर दिए गये थे उनके मरने के बाद लाजवाब भोजन का रसास्वादन कराया जा रहा है!जिनकी अंतड़ियां सुबह शाम अकड़ रही थी उनको हर शाम भोजन कराया जा रहा है!गजब का दिखावटी मंजर है बेशर्मी की कबड्डी पितृपक्ष पर हर जगह देखने को मिल रही है समझ में नहीं आता जब इस सनातनी ब्यवस्था में लोगों के भीतर इतनी बड़ी आस्था कुलांचें मार रही है तो फिर इतनी संख्या में वृद्धा आश्रमों का क्या मतलब है! आखिर ए लोग कौन हैं जो अपनों के वियोग में आखरी सफर के अन्तिम मुकाम पर तन्हाई का दंश झेल रहे हैं?।आखिर उनके साथ कौन लोग खेल खेल रहे हैं!सच तो सच है! जो खुली आंख से हर कोई देख रहा है;फिर फाल्गु नदी के तट पर गया जी में किस बात का पिंड दान!जीते जी कभी नहीं कराए स्नान! जिनकी आत्मा अपनों के कारनामों से कराहती रही मरने के बाद अपनों के कृतित्व को देखकर दर्द भरी मुस्कान के साथ सोचती होगी आखिर कितना गिर गयी है औलाद! कैसे बन जाती है जल्लाद!जब की उसको भी पता है एक दिन उसके साथ भी वही होगा जो वह आज कर रहा है!इस भौतिक बादी युग मे जितना आज कोई करेगा उतना ही कल वह भरेगा? चलिए साहब देखिए वर्तमान में अब इस परम्परा पर भी प्रश्नवाचक लग गया है।तेजी से अपनों को भूलने का सूचकांक उपर चढ़ रहा है।लोक लाज के डर से कुछ लोग पितृपक्ष में दिखावे का खट कर्म जरूर कर रहे हैं लेकिन अनाथालय तथा वृद्धा आश्रमों में भीड़ बढ़ती जा रही है!आखिर क्या हो गया है इस सभ्य समाज के लोगों को!, विकृतियों के सानिध्य में पल रही वर्तमान पीढ़ी जिस सीढ़ी पर चढ़कर मंजिल तलास रही है वह उसके विनाश की हर रोज इबारत लिख रही है।आने वाला कल इससे भी बुरा आता दिख रहा है।जिन अपनो के लिए सारा जीवन तबाह कर दिया वहीं तन्हा सफर में रोशनी के बजाय अंधेरा विखेरने का काम कर रहे हैं।।कभी फुर्सत मिले तो एक बार उस मन्दिर का नमन जरूर करें जिसमें अनमोल ख्वाबों की बलि दे चुके अश्कों से भीगते सिसकते अपनों को तलासते वे लोग है जिनके जीवन में सिर्फ दर्दकी दरिया उफनती है!आजकल हर शहर में ऐसे मन्दिर तेजी से बन रहे जिसके आश्रम में बेसहारा लोग पनाह पाते हैं!जाईए वहीं साक्षात भगवान का दर्शन मिल जायेगा?।ज्ञान चक्षु खुल जायेगा!सद्बुद्धि आहें भरने लगेगी!,कुछ पल मन विचलित होकर खुद से सवाल पूछेगा! आखिर ऐसा क्यों! इस सवाल का जबाब जरूर तलाशिए! पितृपक्ष के खट कर्म के बजाय जीते जी अपनों का सद्कर्म कि जीए! उनके दिल से निकला एक आशीर्वाद ज़िन्दगी बदल देगा! कुछ साथ नहीं जायेगा,कर्मों का ही मालिक के दरबार में हिसाब होगा!——??
सबका मालिक एक 🕉️ साईं राम 🙏🏾🙏🏾
जगदीश सिंह सम्पादक राष्ट्रीय अध्यक्ष राष्ट्रीय पत्रकार संघ भारत 7860503468