
बाबूजी ने एक रेडियो खरीदा था,
तब शायद उनकी दो माह की तनख्वाह उसकी कीमत थी।
काफी बड़ा और भारी था हम बच्चों को उसे न छूने की सख्त हिदायत थी।
दिन में तो घर के अंदर एक दीवार में बनी अल्मारी में रखकर बजता रहता।
और शाम को बाहर चौपाल पर नीम के नीचे ,
एक कनस्तर पर इसे रखा जाता था।
शाम होते ही लोग ब्यारू करके समाचार सुनने आते थे।
सब जमीन पर इधर उधर बैठते।
शांति इतनी कि मजाल क्या समाचारों के वक्त मच्छर भी बोले।
उसमें एक चौखूटी बैटरी तार से जुड़ी रहती थी ,
एरियल के लिए दरवाजे की ऊंचाई पर पर्देनुमा एक जाली लगी रहती थी जो एक तार से रेडियो से जुड़ी रहती थी ।
उसके कोई अवशेष जीवित नहीं हैं आज वो सिर्फ यादों में है।
(चित्र साभार गूगल से )