
सम्पादकीय
ज़िन्दगी कुछ साल के लिए लीज पर मिली है
=रजिस्ट्री के चक्कर में ना पड़ें!!
ध्यान रहे धरती पर हम मेहमान है मालिक नही??—??
जीवन की हर सांस उपर वाले की अमानत है!
उसी के मर्जी से मिली ज़िन्दगी को जमानत है?
फिर भी मानव हर पल अमानत में ख़यानत का खेल करता रहता है!
समय के साथ इन्सानी बस्तियों मे वैमनस्यता इस कदर ब्याप्त है कि अस्पृष्यता अपनी देहरी से बाहर नहीं निकल पा रही है।ऊच नीच बड़ा छोटा का झटका यह समाज आज भी झेल रहा है।कायनाती ब्यवस्था में उपर वाला सबको बराबर का अधिकार देकर कर्म फल भोगने के लिए अवतरित कर दिया।इस समाज की ब्यवस्था ने सबको अलग अलग कर्म बितरित कर दिया!समाज के संचालन मे सभी कामों का सम्पादन सदियों से चला आ रहा है लेकिन सामाजिक परीवेश इस कदर विकृत हुआ की एक ही मालिक की सन्तानो में धर्म कर्म के मर्म में विभेदन कर आपसी बिच्छेदन तबाही में तब्दील हो गया? अवतरण के बाद से ही दिन पर दिन ज़िन्दगी अवसान के तरफ बढ़ने लगती है। जिस तरह सुबह अवतरित भगवान भास्कर शाम को अस्ताचलगामी हो जाते हैं! ठीक वही हालत मगरुर इन्सान का भी होता है! ज़िन्दगी की शाम भी सारी लश्कर को छोड़कर गुमनामी में शमा जाती है। लेकिन सारे जहां की जन्नत को हासिल करने की मन्नत में चार दिन की ज़िन्दगी को मालिक की वन्दगी से दूर रहकर आखरी वक्त में मजबूर बनकर पश्चाताप का आंसू रोता है। खाली हाथ आए खाली हाथ ही जाना है!यह दुनियां ही मुसाफिर खाना है। चलती गाड़ी के मुसाफिर के तरह सभी से जगह साथ छूट जाना है! मगर माया की छत्र छाया में हम साया बनकर वर्तमान का बलिदान भविष्य के निर्माण के लिए कर देता है इन्सान!जब की उसे पता है कल किसी ने नहीं देखा है मृगतृष्णा रूपी इस जहां में सब धोखा है। जब तक सांस चल रही है तभी तक सब काम चोखा है। यह जीवन तो चन्द दिनों के लिए पट्टा पर मिला है!न हम आप इस जहां के मालिक हैं!न जमींदार है? बल्कि चन्द सांसों के केवल तिमारदार है!जिस दिन समय पूरा हुआ लगान की वसूली मजबूरी बन जायेगी!सौ बरस के पट्टा में क्या पाया क्या खोया सबका माकूल हिसाब मालिक के अदालत में देना ही होगा?जहां साथ कोई नहीं होगा! सहयोगी दिखाई नहीं देगा !साथ केवल पश्चाताप मुस्कुराता दूर खड़ा
कहता मिलेगा जस करनी तस भोगहु ताता! कर्म फल की गणना आज करेंगे विधाता! चलिए साहब यह फकीरी अंदाज आधुनिक समाज के लोगों को अच्छा भी नहीं लगेगा क्यों की कलयुग महराज के प्रचंड तेज में मानव समाज झुलस कर विकृती भरे आवेश का शिकार हो गया है।
मतलब परस्ती के सैलाब में इन्सानी बस्तियों का वजूद समाहित है।आस्था की लहरें समरूपता के साहील से टकरा कर विषमता की कश्ती को मझधार में बार बार झंझावात करती हवाओं से उलझा रही है।परीवर्तन के परम्परा में चरमरा रहा लोककल्याण का बांध अब टूट चुका है! हर आदमी सब कुछ पा लेने के लिए खुद अपनो से ही ला वास्ता बना इन्सानियत का रास्ता भुल चुका है।हर लम्हा तन्हा होने का एहसास दिलाता रहता है! लेकिन सब कुछ अपना बनाने की तमन्ना में चौकन्ना आदमी प्रकृति के किताबी पन्ना में
अपना वजूद ही विकृति कीस्याही से दर्ज करा रहा है! परिणाम आज सारा समाज देख रहा है।
घर घर तकरार अनाथालयों बृद्धा आश्रमों में कराहते लोगों की भरमार !
समय रहते सब कुछ अपना है कि मुगालते से बाहर निकलिए कोई अपना नहीं !
सब कुछ मतलबी सपना है?
अपने किरदार को मौसम से बचाए रखिए लौटकर आता नहीं फूल से निकला खुश्बू