
☘️☘️ जय मां चण्डिका ☘️☘️
🌹🌹🌹 विचार मंच🌹🌹
👉👉 आचार्य करुणेश जी महाराज*👈👈
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सज्जनों — आजकल हमलोग प्रायः देखते हैं कि पाप और पुण्य के संघर्ष में पाप की विजय हो रही है । आखिर क्यूं ? आज इसी को समझने का प्रयास करते है ।
मित्रों – पहले तो हम यह देखें कि हम पाप कर रहे हैं या पुण्य । विचारणीय प्रश्न यह है कि हम इस पाप पुण्य के द्वारा पाना क्या चाहते हैं ,
हमारा लक्ष्य क्या है ?
एक व्यक्ति पाप करता है और उसके माध्यम से सुख अर्जित करना चाहता है और दूसरा व्यक्ति पुण्य के द्वारा लौकिक पारलौकिक सुख प्राप्त करना चाहता है
दोनों का लक्ष्य एक ही है – सुख शान्ति की प्राप्ति ।
संसार में कोई ऐसा व्यक्ति नहीं मिलेगा जो दुख पाने के लिए पाप करें या दुख पाने के लिए पुण्य करें ।पाप हो या पुण्य दोनों का उद्देश्य एक समान रहता है अर्थात सुख सुविधा की प्राप्ति ।स्वर्ग क्या है, सुख क्या है ?
हम आप स्वर्ग की कामना क्यूं करते हैं ?
भांति-भांति के व्रत , अनुष्ठान, दान , संयम , नियम करने का उद्देश्य क्या है ?
स्वर्ग की लालसा क्यूं होती है ?
सभी चाहते हैं कि जब तक जीवित रहूं सुख भोगूं और मरने के बाद स्वर्ग मिले । स्वर्ग में जाने पर जो सुख यहां नहीं भी मिल पाया वहां मिल जाएगा ।
मित्रों – इस प्रकार हम देखते हैं कि सुख की परिभाषा दोनों की समान है चाहे पापी हो या पुण्यात्मा ।
पापी भी तो प्रचुर भोग सामग्री चाहते हैं । पुण्यात्मा जिस भोग सामग्री को पुण्य से पाना चाहता है, पापी उसी को पाप कर्म से प्राप्त करते हैं । दोनों का लक्ष्य सुख की प्राप्ति ही है ।केवल साधन में भिन्नता है।
पुण्यात्मा प्राप्त सुख साधनों को बचाए रखना चाहते हैं ताकि उन्हें स्वर्ग में भी सुख मिलता रहे । पापी बलपूर्वक उन सुखों को छीनते रहते हैं । पुण्यात्मा का युद्ध रक्षात्मक है तो पापी का आक्रमणकारी है ।
जब दोनों में युद्ध होता है तो पुण्यात्मा पराजित हो जाते हैं और पापी विजयी हो जाते हैं । और जब पुण्यात्मा पराजित होने लगता है तो वह ईश्वर की शरण ग्रहण करता है । इसलिए जहां तक मेरा विचार है
ईश्वर का आश्रय ग्रहण करो , केवल पुण्य अपने बल से पाप को पराजित नहीं कर पायेगा ।
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