
ट्रेन अपनी पूरी गति से दौड़ रही थी और काफी भीड़ थी..
“भाई ज़रा साइड दो, गरम पकौड़े आ रहे हैं…!”
एक मध्यम उम्र की महिला, हाथ में बड़ी-सी टोकरी लिए, मुस्कुराती हुई भीड़ के बीच से रास्ता बना रही थी।
उसके मैले-से दुपट्टे और चप्पलों के घिसे किनारों को देखकर कोई भी अंदाज़ा नहीं लगा सकता था कि यही महिला आज शहर में “पकौड़ा मैडम” के नाम से मशहूर है, जिसकी सालाना कमाई करोड़ों में है।
लेकिन उसकी यह पहचान, सोने की तरह तपकर बनी थी।
कहानी की शुरुआत उस दिन से होती है, जब उसके पास चाय पीने तक के पैसे नहीं थे।
उसका नाम रीना था।
शादी को मुश्किल से तीन साल हुए थे, कि अचानक पति एक सड़क हादसे में चल बसे।
गोद में छह महीने का बेटा और साथ में ढाई साल की बेटी…
ऊपर से कर्ज़ और नीचे से गरीबी का गड्ढा।
गाँव के लोग बार-बार कहते,
“रीना, शहर जा… यहाँ तेरे बच्चों का क्या होगा?”
एक सस्ते ट्रक में बैठकर, सिर्फ़ एक बैग और बच्चों को लेकर वह इंदौर पहुँच गई।
न कोई जान-पहचान, न सहारा… बस जीने का ज़िद्दी इरादा।
एक दिन स्टेशन के प्लेटफॉर्म पर बैठी थी, जेब में बस 40 रुपये बचे थे।
बगल की दुकान से गरम-गरम पकौड़ों की खुशबू आई, और उसने देखा कि लोग चाय के साथ बड़े चाव से खा रहे हैं।
तभी दिमाग़ में एक ख्याल आया—
“अगर मैं भी पकौड़े बेचूँ तो?”
अगले दिन उसने बेसन, प्याज़ और तेल खरीदा। घर में पकौड़े बनाकर टोकरी में भर लिए और स्टेशन पर खड़े हो गई।
पहले दिन उसने 30 प्लेट बनाई, सब बिक गईं।
मुनाफ़ा सिर्फ़ 50 रुपये का था, लेकिन चेहरे पर एक उम्मीद की किरण चमक उठी।
दिन गुज़रते गए, और “रीना दीदी” का नाम यात्रियों में मशहूर हो गया।
“अरे दीदी, आज गरम-गरम वाले देना!”
वह सिर्फ़ पकौड़े नहीं बेचती थी, बल्कि मुस्कुराहट भी परोसती थी।
थोड़े ही समय में वह रोज़ 200–250 प्लेट बेचने लगी।
बच्चे स्कूल जाने लगे, और किराया भी समय पर चुकने लगा।
रेलवे के कर्मचारी कभी-कभी उसे रोकते,
“मैडम, यहाँ बैठना मना है!”
कभी बारिश में सारा सामान भीग जाता, कभी पकौड़े बच जाते।
पर उसने हार मानना सीखा ही नहीं।
उसने यात्रियों की पसंद जानकर नए-नए आइडिया निकाले—पालक-प्याज़ पकौड़े, पनीर पकौड़े, यहाँ तक कि मीठे पकौड़े भी!
यात्री पैकेट बनवाकर घर ले जाने लगे।
—
एक दिन प्लेटफॉर्म पर एक बड़े होटल के मालिक ने उसके पकौड़े खाए।
वह बोला,
“तुम्हारा स्वाद मार्केट में धूम मचा सकता है। क्या तुम मेरे साथ काम करोगी?”
रीना डर गई, लेकिन बच्चों की मुस्कुराहट याद आई और उसने हाँ कर दी।
होटल मालिक ने उसे एक छोटा-सा किचन दिलवाया और ब्रांडिंग सिखाई।
अब रीना स्टेशन के साथ-साथ शहर में भी सप्लाई देने लगी।
—
10 साल बाद रीना के पास 15 आउटलेट्स, 60 कर्मचारी और लाखों का बिज़नेस था।
लेकिन आज भी वह महीने में एक दिन स्टेशन जाती है और खुद पकौड़े बेचती है।
लोग पूछते,
“इतनी अमीर होकर भी…?”
वह बस मुस्कुरा देती है—
“ये प्लेटफॉर्म मुझे याद दिलाता है कि मैं कहाँ से चली थी।”
—सीख:–
“हालात कितने भी कठोर क्यों न हों, अगर हिम्मत और मेहनत साथ हो, तो पकौड़े बेचने वाली भी अपनी किस्मत का स्वाद बदल सकती है।”