पुस्तक समीक्षा — ‘लार्ड मैकाले — नायक अथवा खलनायक?’
डॉ. विद्यासागर उपाध्याय का ग्रंथ लार्ड मैकाले — नायक अथवा खलनायक? उस श्रेणी का साहित्य है जो पाठक को मात्र जानकारी नहीं देता, बल्कि उसे इतिहास की धड़कन सुनने और अपनी सांस्कृतिक चेतना को परखने के लिए बाध्य करता है।
लार्ड मैकाले—नायक अथवा खलनायक? आधुनिक भारत को समझने के लिए अत्यंत आवश्यक कृति है।
यह पुस्तक भारतीय शिक्षा-दर्शन, सांस्कृतिक चेतना और औपनिवेशिक मानसिकता की जटिलताओं को गहनता एवं सौंदर्य के साथ प्रस्तुत करती है।
यह पुस्तक—
इतिहास है, पर केवल इतिहास नहीं।
आलोचना है, पर केवल आलोचना नहीं।
दर्शन है, पर केवल दर्शन नहीं।
यह भारतीय आत्मा का जागरण-ग्रंथ है।
यह पुस्तक जीवनी-वर्णन से कहीं आगे जाकर उस बुद्धिसंगत संघर्ष को सामने लाती है जिसके भीतर आधुनिक भारत की शिक्षा, मानसिकता और आत्म-छवि आकार ग्रहण करती रही।
लेखक ने मैकाले को एक व्यक्ति के रूप में नहीं, बल्कि एक विचार-परंपरा के प्रतीक के रूप में पढ़ने का साहसिक आग्रह रखा है—और यह आग्रह पुस्तक की सबसे सशक्त पहचान बनकर उभरता है।
विषय-सूची पढ़ते ही स्पष्ट हो जाता है कि लेखक ने मैकाले को एक व्यापक बौद्धिक परिप्रेक्ष्य में रखा है।
1813 और 1833 के चार्टर एक्ट, एडम्स रिपोर्ट, वुड डिस्पैच, भारतीय दंड संहिता, निस्यंदन सिद्धांत, भारत की शिक्षा परम्परा—इन सभी पर गंभीर और सुव्यवस्थित विमर्श किया गया है।
अध्यायों की संरचना यह सिद्ध करती है कि लेखक की पकड़ इतिहास और दर्शन दोनों पर समान रूप से सुदृढ़ है।
डॉ. उपाध्याय की लेखनी विद्वत्ता और सौंदर्य का संतुलन प्रस्तुत करती है।
उनकी भाषा में एक दार्शनिक ताप, एक सांस्कृतिक करुणा और एक ऐतिहासिक गहनता है।
कई स्थानों पर लेखन शास्त्रीय निबंध की स्मृति जगाता है, तो कहीं यह राष्ट्रीय आत्मा के आह्वान का रूप ले लेता है।
यह वही शैली है, जिसने पाठकों और विद्वानों—दोनों वर्गों को समान रूप से आकृष्ट किया है।
लेखक ने यह दिखाया कि मैकाले की शिक्षा-नीति केवल प्रशासकीय निर्णय नहीं थी; वह एक दूरगामी सांस्कृतिक नेतृत्व की योजना थी, जिसने भारतीय आत्म-छवि को प्रभावित किया।
पुस्तक किसी निष्कर्ष-थोपने वाली कृति नहीं है; यह पाठक को स्वयं विचार करने का अवसर देती है।
लेखक मैकाले के सकारात्मक और नकारात्मक दोनों पक्षों को वस्तुपरक रूप में प्रस्तुत करते हैं।
वे न तो अंधविरोध करते हैं, न अंधसमर्थन—बल्कि तथ्य, विचार और अनुभव के आधार पर संवाद रचते हैं।
यह ग्रंथ भारतीयता को केवल भावनात्मक धरोहर नहीं मानता; वह इसे ज्ञान, तर्क और ऐतिहासिक संवेदनशीलता के साथ पुनर्परिभाषित करता है।
पुस्तक यह दिखाती है कि मैकाले एक व्यक्ति मात्र नहीं था; वह उस युग की मानसिकता, औपनिवेशिक दर्प और बौद्धिक रणनीति का प्रतीक था।
लेखक ने गहन संवेदनशीलता से यह प्रतिपादित किया है कि अंग्रेज़ी शिक्षा का आगमन केवल भाषा परिवर्तन नहीं था—यह सोच, दृष्टि और आत्म-आकलन को प्रभावित करने वाला गहरा सांस्कृतिक मोड़ था।
ग्रंथ इस मूल प्रश्न को अत्यंत प्रभावी ढंग से उठाता है— “मैकाले क्या आधुनिकता का वाहक था, या सांस्कृतिक विस्मृति का सूत्रधार?”
बुन्देलखण्ड विश्वविद्यालय के अधिष्ठाता एवं प्रख्यात विद्वान प्रो. (डॉ.) पुनीत बिसारिया द्वारा दी गई मुक्तकंठ प्रशंसा इस कृति की गंभीरता और प्रतिष्ठा को और दृढ़ करती है।
उनकी शुभाशंसा यह संकेत देती है कि यह ग्रंथ विश्वविद्यालयीय तथा शोध-परिसरों के लिए भी समान रूप से उपयोगी है।
डॉ. विद्यासागर उपाध्याय का यह नवीनतम महाग्रंथ भारतीय बौद्धिक जगत में एक महत्वपूर्ण हस्तक्षेप के रूप में उपस्थित होता है।
ग्रंथ केवल “मैकाले” का ऐतिहासिक मूल्यांकन नहीं है, बल्कि भारतीय आत्मा, शिक्षा और सांस्कृतिक चेतना के पुनरुत्थान का विस्तृत संवाद है।
लेखक का दार्शनिक मंथन, सांस्कृतिक दृष्टि और शोधसंपन्नता इसे एक अत्यंत उच्चकोटि का वैचारिक ग्रंथ बना देती है।
ग्रंथ में मैकाले के भाषणों, विधिक दस्तावेजों और शिक्षा-नीतियों की पृष्ठभूमि का विवेचन एक ऐसे बहुआयामी ढंग से किया गया है जिसमें इतिहास केवल अतीत नहीं रहता, बल्कि वर्तमान का विवेक भी बन जाता है।
अंग्रेज़ी शिक्षा-प्रणाली के प्रभावों का विश्लेषण करते हुए लेखक ने यह स्पष्ट किया है कि उपनिवेशी ज्ञान-संरचना ने जहाँ नई बौद्धिक राहें खोलीं, वहीं भारतीय आत्मचेतना को एक गहरे मूल्य-संघर्ष में भी डाला।
यह द्वंद्व पुस्तक भर निरंतर चलता है और पाठक को बार-बार यह सोचने पर विवश करता है कि आधुनिकता और परंपरा के बीच संतुलन का सूत्र कहाँ छिपा है।
पुस्तक मैकाले को केवल “अंग्रेज़ी शिक्षा-प्रदाता” के रूप में नहीं प्रस्तुत करती; वह मैकाले के विचारों, उनके भाषणों, नीति-निहितताओं और उनके दूरगामी प्रभावों का शोध-आधारित विवेचन करती है।
ग्रन्थ में शिक्षा के ऐतिहासिक मौके (चार्टर एक्ट आदि), संस्थागत रिपोर्टें, और उन नीतियों के सामाजिक-सांस्कृतिक परिणामों का विश्लेषण है।
साथ ही पुस्तक उस भारतीय आत्मा-आलोचना को उठाती है जिसने पश्चिमी ज्ञान-आरोह में अपनी पहचान तलाशते हुए कई बार अपनी जड़ों से कटन अनुभव किया।
लेखक का केन्द्रीय दावा प्रभावी है — अंग्रेज़ी शिक्षा ने ज्ञान के रूपांतर प्रदान किए पर सांस्कृतिक आत्मचेतना को अल्प महत्व दिया।
यह संघर्ष लेखक ने स्पष्ट रूप से, उदाहरणों और भाषणों के हवाले से प्रस्तुत किया है।
लेखक मैकाले को “नायक/खलनायक” के द्वैत से बाहर निकालकर दर्पण की संज्ञा देता है — वह विचार और प्रवृत्ति का प्रतिनिधि है जो समाज में दुविधा उत्पन्न करता रहा।
यह फ्रेम साहित्यिक रूप से प्रबल और चिंतन हेतु उपयुक्त है।
ग्रंथ यह भी दिखाता है कि विदेशी प्रभाव ने भारत को केवल क्षति नहीं पहुँचाई; उसने आत्म-परख और पुनरुत्थान की प्रक्रिया भी आरम्भ करवाई — यही द्वंद्व पुस्तक की निहित भावना है।
लेखक का प्रयास है कि शिक्षा के साथ-साथ कानून और प्रशासनिक विचारधाराओं का भी सांस्कृतिक असर समझा जाए — यह बहुआयामी दृष्टि पाठक के लिए लाभप्रद है।
पुस्तक में पारंपरिक और राजकीय अभिलेखों के संदर्भ का संकेत मिलता है — संसदीय अभिलेख, मैकाले के निबन्ध, और समकालीन रिपोर्टें।
यह तथ्य और विचार के समन्वय को मजबूती देता है।
साथ ही भारतीय चिंतकों और समालोचकों के वक्तव्यों को शामिल कर लेखक ने बहुस्वरों का संतुलन बनाने की कोशिश की है।
जहाँ लेखक भावनात्मक और नाटकीय भाषा का प्रयोग कर प्रभाव पैदा करते हैं, वहाँ प्रभावी ऐतिहासिक दावा होने के लिए रेफरेंसेस का और अधिक सूक्ष्म-उल्लेख पाठक के लिए उपयोगी रहता है।
यानी ग्रंथ का प्रमाणिक आधार मजबूत है—पर कुछ स्थानों पर डॉक्यूमेंटेड नोट्स, पृष्ठसूची या स्रोत-सूचक टिप्पणियाँ और विस्तृत होने पर अकादमिक पाठक और अधिक संतुष्ट होंगे।
डॉ. उपाध्याय की लेखनशैली पत्रकार-दार्शनिक मिश्रित है — कभी तीव्र निष्कर्षात्मक, कभी भावनात्मक।
उनकी भाषा रसपूर्ण, समय-समय पर तीक्ष्ण है और निबंधात्मक भाषा में गहराई है।
अध्यायों का विभाजन विषयपरक और तार्किक है।
कुछ स्थानों पर कथन व्यापक होते चले जाते हैं — उदाहरणतः “यह नीति पूरी तरह निस्यंदन सिद्धांत-जनित थी” जैसे कथनों को और स्पष्ट प्रमाण की आवश्यकता होगी।
अकादमिक पाठक के लिए अधिक शीट-रेफरेंस और टिप्पणियाँ उपयोगी रहीं होतीं।
पुस्तक का निबन्धात्मक स्वर साहित्यिक गुण देता है किन्तु कुछ हिस्सों में सघन संदर्भ-सूची का अभाव महूसूस होता है।
लेखक ने मैकाले-विरोध के पक्ष को गहनता से उठाया है; पर कुछ अध्यायों में मैकाले के समर्थक तर्कों का विस्तृत प्रस्तुतिकरण और उनके परिप्रेक्ष्य का और विवेचन पुस्तक को और अधिक संतुलित कर देता।
विद्वान लेखक से मेरा अनुरोध है कि अगले संस्करण में विस्तृत संदर्भ-सूची, प्राथमिक स्रोतों के उद्धरण और कुछ आर्काइव-प्रलेखों की प्रतिलिपि शामिल करें — इससे पुस्तक की अकादमिक पहुँच और बढ़ेगी।
लार्ड मैकाले — नायक अथवा खलनायक?
एक प्रतिशोधात्मक निबन्ध नहीं, बल्कि एक जिज्ञासु, उत्तेजक और संवेदनशील व्याख्या है।
डॉ. विद्यासागर उपाध्याय ने उस प्रकार का साहित्य रचा है जो प्रश्न खड़ा कर के इतिहास को वर्तमान की परीक्षा बनाकर चलने पर विवश करता है।
पुस्तक की सबसे बड़ी उपलब्धि यही है कि वह पाठक को मंच देता है — स्वयं सोचने, स्वयं परखने और अपनी सांस्कृतिक पहचान का पुनर्निर्धारण करने का।
मैकाले को नायक और खलनायक के रूढ़ द्वैत से बाहर निकालकर लेखक ने उसे एक दर्पण की तरह प्रस्तुत किया है—एक ऐसा दर्पण जिसमें भारतीय समाज अपने ही परिवर्तनों, आकांक्षाओं और संदेहों को देख सकता है।
यह दृष्टिकोण न केवल रोचक है, बल्कि चिंतन की ऊष्मा से भरपूर भी है।
ग्रंथ में शिक्षा को संस्कृतिकरण, प्रशासन को विचारधारा और विधि-निर्माण को मानसिक उपनिवेशवाद के संदर्भों में रखकर पढ़ा गया है, जिससे पुस्तक का विमर्श स्तर गहन और व्यापक बन जाता है।
लेखक की भाषा भावपूर्ण, कभी-कभी तीक्ष्ण और अनेक स्थानों पर दार्शनिक आभा से दमकती दिखाई देती है।
उनकी शैली निबंधात्मक भी है और संवादात्मक भी, जिससे पाठक को लगता है कि वह केवल पुस्तक नहीं पढ़ रहा, बल्कि किसी विचार-सभा में उपस्थित है।
यद्यपि कहीं-कहीं भाषा का भावनात्मक उत्कर्ष तथ्यात्मक कठोरता से थोड़ा आगे बढ़ जाता है, पर यह न्यून से न्यूनतम चूक उनकी मूल दृष्टि की गंभीरता पर कोई वास्तविक आँच नहीं डालती और पुस्तक की वैचारिक श्रेणी एवं उसके तर्क की प्रखरता इस कमी की भरपाई सहज ही कर लेती है।
इस ग्रंथ की सर्वाधिक उल्लेखनीय विशेषता यह है कि यह पाठक को आलोचना के एकतरफ़ा पथ पर नहीं धकेलता।
यह स्वीकार करता है कि विदेशी प्रभाव केवल आघात का कारण नहीं था—उसने आत्म-परीक्षण, आत्म-संशोधन और पुनर्जागरण की प्रवृत्ति को भी जन्म दिया।
लेखक का यह संतुलित विवेक ग्रंथ को कटु-विमर्श से ऊपर उठाकर एक परिष्कृत सांस्कृतिक संवाद में रूपांतरित कर देता है।
अध्ययनशील पाठक, शोधार्थी, शिक्षाविद् और भारतीय विचार-इतिहास में रुचि रखने वाले सभी के लिए यह पुस्तक समान रूप से उपयोगी है।
इसकी भाषा सरल नहीं, परंतु सारगर्भित है; इसके तर्क जटिल नहीं, परंतु विवेकपूर्ण हैं।
यह ग्रंथ जानकारी देने से अधिक आत्म-चिंतन की भूमि तैयार करता है, जिसका महत्व केवल शैक्षणिक नहीं, बल्कि सांस्कृतिक भी है।
अंततः यह कहा जा सकता है कि लार्ड मैकाले — नायक अथवा खलनायक?
एक ऐसा गंभीर और उपयोगी ग्रंथ है जो भारतीय बुद्धि-परंपरा में प्रश्नोन्मुखता, पुनर्विचार और आत्म-निर्धारण की प्रक्रिया को आगे बढ़ाता है।
यह पुस्तक पाठक को उकसाती नहीं, बल्कि जगाती है।
यह प्रश्नों को आरोप नहीं, बल्कि आत्म-सम्वाद के रूप में रखती है। समग्र प्रभाव यह है कि पाठक केवल मैकाले को नहीं, स्वयं को भी पढ़ता है।
इसमें विचार की ऊँचाई भी है, भाषा की गरिमा भी और संवाद की निरंतरता भी।
अपनी अल्प-सी कमजोरियों के बावजूद यह पुस्तक भारतीय शिक्षा-विचार में एक आवश्यक और मूल्यवान योगदान के रूप में प्रतिष्ठित होती है—एक ऐसा ग्रंथ जो पढ़े जाने से अधिक आत्मसात किए जाने की मांग करता है।
यह ग्रंथ निश्चय ही डॉ. विद्यासागर उपाध्याय की दीर्घ साधना, उनके दार्शनिक ताप और भारतीय संस्कृति के प्रति उनकी गहरी निष्ठा का उज्ज्वल प्रमाण है।
अगर आप- शिक्षा के इतिहास में रुचि रखते हैं, साम्राज्य-कालीन संस्कृतियों के टकराव को समझना चाहते हैं, या आज के भारतीय चिन्तन में जड़-जांच करना चाहते हैं — तो यह ग्रंथ अवश्य पढ़ें। मैं इस पुस्तक को चिंतकों, अध्यापक-वर्ग, शोधार्थियों, नीति-विश्लेषकों और आधुनिक भारतीयता को समझने वाले सभी पाठकों के लिए पढ़ने एवं आत्मसात् करने की सिफारिश करती हूँ।
डॉ रिंकी पाठक
समीक्षक

