मेरी आदत थी कि जब भी मैं किसी के घर काम करने जाती, तो सबसे पहले अपना दुपट्टा उतारकर कहीं टांग देती और फिर काम शुरू करती।
पिछले हफ्ते मैंने एक नया घर पकड़ा था।
उस घर में कुल चार लोग थे—आंटी, अंकल और उनके दो बेटे। आंटी देर से बुलाती थीं और काम भी ज्यादा नहीं होता था।
इसलिए मैं बाकी घरों का काम निपटाकर सबसे आखिर में उनके घर जाती।
उनके साथ कुछ देर बातें कर लेने से थकान भी मिट जाती थी।
रोज की तरह, आज भी मैं बड़ी तन्मयता से फर्श पर पोंछा लगा रही थी और पास बैठी आंटी से बात कर रही थी।
अचानक आंटी ने पूछा, **”सुधा, तू हर जगह ऐसे ही काम करती है, बगैर दुपट्टे के?”**
मैंने झट से जवाब दिया, **”हां, आंटी जी। मुझसे दुपट्टा लेकर काम बिल्कुल नहीं होता।”**
आंटी कुछ पल चुप रहीं, फिर बोलीं, **”देख, बुरा मत मानना।
तू मेरी बेटी समान है, इसलिए कह रही हूं।
जरा अपने कुर्ते के गले की तरफ देख।”**
मैंने जैसे ही अपने गले की ओर देखा, तो खुद ही खिसिया गई।
कुर्ते का गला बड़ा था, जिससे मेरे शरीर का कुछ हिस्सा और यहां तक कि शमीज़ भी थोड़ी-सी दिख रही थी।
आंटी ने प्यार भरे स्वर में कहा, **”देखा?
मैं औरत हूं, फिर भी बार-बार मेरी नजर पड़ जाती है।
अब सोच, गलती से ही सही, अगर आते-जाते मर्दों की नजर पड़ जाए तो तुम ही कहोगी कि ये घर के मर्द बहुत खराब हैं।
लेकिन अगर सामने कुछ दिख रहा हो, तो कोई भी नजर हटा नहीं सकता।
अब कोई आंखें बंद करके तो नहीं चल सकता, ना?
इसलिए खुद ही कायदे से रहना चाहिए।”**
इतना कहने के बाद उन्होंने अपनी साड़ी के पल्लू से ढककर मुझे समझाया कि मुझे खुद को कैसे ठीक से ढकना चाहिए।
उनके समझाने का तरीका ऐसा था कि मुझे लगा जैसे मेरी मां बोल रही हो।
मेरी मां, जो मुझे बचपन में ऐसे ही सिखाती थीं, लेकिन बहुत पहले इस दुनिया से चली गई थीं।
मैं आठ-नौ साल की थी तब।
आंटी की बात सुनकर मेरा गला भर आया।
मैंने कहा, **”आप सही कह रही हैं।
लेकिन आज तक किसी ने मुझे इस बारे में कुछ नहीं कहा, न ही कुछ सिखाया।
शायद इसलिए कभी ध्यान ही नहीं गया।”**
इसके बाद, मैंने तुरंत अपना दुपट्टा ठीक से कसा और उसे सामने से कमर में बांध लिया।
आंटी ने मुझे जिस प्यार से समझाया था, वह मेरे दिल को छू गया।
उनकी बातों ने मुझे यह सिखाया कि जिम्मेदारी केवल दूसरों की नहीं होती, बल्कि खुद को भी सही तरीके से रखना हमारी अपनी जिम्मेदारी है।

