
😥😭 मेरी माँ के देहांत के बाद, मेरे पिता ने दूसरी शादी कर ली। उस समय मैं 15 साल की थी।
नई माँ का नाम रीना था।
लोग कहते थे वह सुंदर और सलीकेदार है, लेकिन मुझे उनके चेहरे की मुस्कान हमेशा बनावटी लगती थी।
रीना अपने साथ एक बेटा लाई थी—अर्णव, उम्र 10 साल।
मुझे लगा था कि शायद भाई जैसा रिश्ता बनेगा, पर जल्द ही समझ आ गया कि वह मुझसे अलग था।
घर की हर चीज़ पर उसका हक़ सबसे पहले होता।
पापा उसके लिए खिलौने, नए जूते, और मोबाइल लाते।
और मेरे हिस्से में बचता—“तुम बड़ी हो, समझदारी दिखाओ।”
मैंने कई बार पापा से कहा, “आपको लगता है मैं आपकी नहीं हूँ?”
वह बस थककर कहते: “रीना को एडजस्ट करना है, थोड़ा सब्र रख।”
लेकिन सब्र की भी हद होती है।
17 साल की उम्र में, एक दिन जब रीना ने मेरी किताबें खिड़की से बाहर फेंक दीं—क्योंकि उसमें किसी लड़के की लिखी पंक्ति मिली थी—तो मैंने घर छोड़ दिया।
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मैं ट्रेन पकड़कर मुंबई पहुँच गई।
वहाँ शुरू हुआ संघर्ष—पहले होटल में बर्तन धोने का काम, फिर एक टेलरिंग शॉप पर इंटर्न, और धीरे-धीरे मेहनत से मैंने अपना रास्ता बना लिया।
कपड़ों की डिज़ाइनिंग में दिलचस्पी थी, तो वहीं से आगे बढ़ी।
बीस साल गुजर गए।
मैंने अपनी छोटी-सी फैक्ट्री खोल ली, कुछ कारीगर काम करते थे।
ज़िंदगी स्थिर थी, लेकिन दिल में एक कोना हमेशा खाली रहा—घर का।
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एक सुबह फ़ोन आया।
पापा का देहांत हो गया था।
मैं जैसे जड़ हो गई।
भीगे मन से लखनऊ लौटी।
पुराना घर देखा—बड़ा दरवाज़ा अब जर्जर हो चुका था।
अंदर कदम रखते ही हवा भारी लगी।
मोहल्लेवालों से पता चला—पापा के बाद रीना और अर्णव की हालत बुरी हो गई।
अर्णव ने बिज़नेस शुरू करने के लिए कर्ज़ लिया था।
साझेदार ने धोखा दिया, सब पैसा डूब गया।
साहूकार रोज़ धमकी देते आते।
रीना लोगों के सामने हाथ जोड़ती—पर कोई सुनता नहीं।
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मैं घर के आँगन में पहुँची।
रीना वहीं थीं—सफेद साड़ी में, चेहरे की चमक गायब, आँखें सूजी हुईं।
वही रीना, जिसने कभी मुझे तिरस्कृत नज़रों से देखा था, अब टूटी हुई और अकेली खड़ी थीं।
साहूकार चिल्ला रहे थे:
“पैसे दो, वरना ये घर बेच देंगे!”
मैंने भीड़ में कदम रखा।
“रुकिए। यह घर बिकेगा नहीं।
कर्ज़ मैं चुकाऊँगी।”
सबके चेहरे पलट गए।
रीना की आँखों में अविश्वास और काँपते होंठ थे।
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रात को, हम चूल्हे पर चाय के सामने बैठे।
रीना बोलीं:
“तुम्हें शायद याद हो, मैंने तुम्हारे साथ अच्छा नहीं किया।
मैं चाहती थी कि अर्णव आगे बढ़े।
सोचा था, तुम बड़ी हो, संभाल लोगी।
लेकिन वही बेटा…
मेरी सबसे बड़ी सज़ा बन गया।
अब मैं अकेली रह गई हूँ।”
मैंने लंबे समय तक कुछ नहीं कहा।
फिर बोली:
“रीना जी, अतीत नहीं बदल सकता।
लेकिन हम दोनों के पास आज है।
आज से अगर आप मुझे बेटी मानें, तो मैं आपको माँ मानने की कोशिश करूँगी।”
उनकी आँखों से आँसू ढलके।
उन्होंने धीरे से मेरी हथेली थामी:
“माँ तो मैं पहले ही नहीं बन पाई…
शायद अब दोस्त बन जाऊँ।”
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अगली सुबह मैं उन्हें लेकर बैंक गई।
कर्ज़ की फाइलों की समीक्षा करवाई, साहूकार की धमकियों की शिकायत दर्ज कराई।
मैंने अपने बिज़नेस से कुछ पैसे डाले और बाक़ी किस्तों का हिसाब बनाया।
अर्णव भी आया—काँपता हुआ।
उसने कहा, “दीदी, मैंने बहुत ग़लती की।
पर अब मैं भागना नहीं चाहता।”
मैंने उसकी तरफ़ देखा, और सख़्ती से कहा:
“अगर सुधारना है, तो ईमानदारी से काम करना होगा।
वरना कोई रिश्ता नहीं बचेगा।”
वह चुपचाप सिर झुकाकर राज़ी हो गया।
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शाम को रीना ने पहली बार मेरे लिए अपने हाथों से खाना बनाया। सादा दाल और चपाती।
परोसते हुए बोलीं:
“अगर चाहो तो मुझे ‘रीना’ कह सकती हो।
माँ कहलाने का हक़ शायद खो चुकी हूँ।”
मैंने मुस्कुराकर कहा:
“नाम से नहीं, काम से रिश्ता बदलता है।
देखेंगे, आगे क्या होता है।”
आँगन में नीम का पेड़ झूम रहा था।
बहुत साल बाद घर में चूल्हे की महक आई थी।
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उस रात, मैंने पापा की तस्वीर के सामने दीपक रखा।
धीरे से कहा:
“आपका घर टूटा था, पर मैं उसे जोड़ने आई हूँ।
शायद देर से, पर इस बार पूरा करके जाऊँगी।”
धीरे-धीरे भीतर का बोझ हल्का होता गया।
मुझे एहसास हुआ—नफ़रत से ज़्यादा भारी बोझ माफ़ी न देने का होता है।
यह जिंदगी है कब किस मोड पर आ जाए कुछ भी नहीं कह सकते हैं इसलिए आज को संवारने के लिए हमेशा तैयार रहना चाहिए।
🌼 उस दिन के बाद, मैंने वहीं रहने का निर्णय लिया—
न अतीत भूलने के लिए, बल्कि उसे सुधारने के लिए।😥💯😭