
लोकतंत्र की आवाज़ या आवारा कुत्तों का शोर?
आज देश के कई प्रमुख अखबारों ने अपनी लीड खबर के रूप में दिल्ली-एनसीआर की सड़कों से आवारा कुत्तों को हटाने के सुप्रीम कोर्ट के आदेश को जगह दी है।
यह खबर बेशक महत्वपूर्ण है, लेकिन क्या यह 300 सांसदों के सड़क पर उतरने की खबर से ज़्यादा महत्वपूर्ण है?
यह सवाल आज हमारी पत्रकारिता के “संपादकीय विवेक” पर एक गहरा प्रश्नचिह्न लगाता है।
यह वह दौर है जब देश का चौथा स्तंभ, पत्रकारिता, अपनी प्राथमिकताएं तय करने में हिचकिचा रहा है।
विपक्ष के सांसदों का यह प्रदर्शन एक पूर्व-घोषित आंदोलन का हिस्सा था।
उनकी मांगें थीं कि चुनाव आयोग वोट चोरी के आरोपों की जांच करे, खासकर उस आरोप की जिसमें कहा गया है कि लोकसभा चुनाव में भाजपा ने 25 सीटें चोरी के वोट से जीती हैं।
राहुल गांधी ने चुनौती दी है कि अगर चुनाव आयोग उन्हें मशीन से पढ़ने योग्य मतदाता सूची दे, तो वे इस बात को साबित कर देंगे। इस आरोप की गंभीरता को समझने की बजाय, हमारा मीडिया आवारा कुत्तों पर सुप्रीम कोर्ट के आदेश को कहीं अधिक महत्व दे रहा है।
क्या यह लोकतंत्र के सबसे बड़े मुद्दों में से एक पर पर्दा डालने की कोशिश नहीं है?
अखबारों की प्राथमिकताएं देखकर ऐसा लगता है मानो मीडिया, सरकार और चुनाव आयोग मिलकर काम कर रहे हैं।
राहुल गांधी के आरोपों को गंभीरता से लेने की बजाय, उन्हें बदनाम करने और उनकी विश्वसनीयता कम करने का अभियान जारी है। जब सांसदों के विरोध प्रदर्शन की ख़बरों को दबाने की कोशिश की गई, और जब यह अंतरराष्ट्रीय स्तर पर फैल गई तब इसे प्रमुखता से प्रकाशित किया गया।
लेकिन, इस ‘प्रमुखता’ में भी कुत्ते वाली ख़बर को कहीं अधिक जगह दी गई।
यह आज के “अमृतकाल” में पत्रकारिता की हकीकत को दर्शाता है।
सवाल यह नहीं है कि आवारा कुत्तों की खबर महत्वपूर्ण है या नहीं। सवाल यह है कि एक तरफ जहाँ जनता के चुने हुए प्रतिनिधि लोकतंत्र को बचाने की गुहार लगा रहे हैं, और उनके आरोपों में देश के सबसे बड़े चुनाव की निष्पक्षता पर सवाल उठ रहे हैं, वहीं मीडिया अपनी जिम्मेदारी से मुँह मोड़ रहा है।
यह एक ऐसा खतरनाक संकेत है, जो बताता है कि हमारी पत्रकारिता अब सच्चाई दिखाने से ज़्यादा सत्ता के एजेंडे को आगे बढ़ाने में व्यस्त है।
चुनाव आयोग का रवैया भी निराश करने वाला है।
जहाँ तेजस्वी यादव और विजय सिन्हा को नोटिस दिया जाता है, वहीं शकुन रानी जैसे मामलों में, जहाँ एक ही व्यक्ति के तीन जगहों पर नाम हैं, आयोग सफाई देने में व्यस्त है कि उन्होंने एक ही बार वोट दिया।
यह हास्यास्पद है।
असली मुद्दा वोट डालना नहीं, बल्कि मतदाता सूची में नाम की डुप्लीकेसी है।
इस पर कार्रवाई करने के बजाय, आयोग फालतू के कामों में व्यस्त है, जिससे उसकी निष्पक्षता पर संदेह और गहराता है।
यह संयोग नहीं, बल्कि प्रयोग है।
जिस दिन विपक्ष के सांसद लोकतंत्र को बचाने की लड़ाई लड़ रहे थे, उसी दिन लोकसभा में बिना चर्चा के नया आयकर बिल पास हो गया।
और प्रधानमंत्री सांसदों को उनकी निजी परेशानियों से मुक्त होने की सलाह दे रहे थे।
यह दिखाता है कि सत्ता किस तरह अपने एजेंडे को आगे बढ़ा रही है और मीडिया इसमें उसका साथी बन रहा है।
यह समय है कि हम जागें और सवाल करें। क्या हमारी पत्रकारिता इतनी गिर गई है कि वह लोकतंत्र की बुनियाद को हिलाने वाले सवालों पर चुप्पी साध ले और आवारा कुत्तों की ख़बरों को अपनी लीड बना ले? जब लोकतंत्र की आवाज़ को ख़बरों के शोर में दबाया जाता है, तो हमें समझना चाहिए कि यह केवल पत्रकारिता का संकट नहीं, बल्कि हमारे लोकतंत्र का संकट है।