
*सम्पादकीय*
✍🏾जगदीश सिंह सम्पादक✍🏾
*कभी पत्थर की ठोकर से भी आती नहीं खरोंच*!!
*कभी एक जरा सी बात से इन्सान बिखर जाता है*!!
बदलता परिवेश आधुनिकता के निवेश में देश के भीतर न जाने कितने धार्मिक सन्देश को सामाजिक धरातल पर जनसमुदाय को सुरक्षित रखने के उद्देश्य से सदियों से प्रतिपादित होता चला आ रहा है।खास कर सनातनी समुदाय के त्योहारों की हलचल से सभी को पता चल जाता है कि आने वाले कल में उपासना का कठिन ब्रत शुरू होने वाला है।अभी नवरात्रि, दशहरा गुजरा है तब तक करवा चौथ का विस्मयकारी ब्रत आ गया! इसी के बाद दीपावली तथा देश के कोने कोने में अपनी छाप छोड़ने वाला त्योहार छठ का आ रहा है। हिन्दू समाज में सारे ब्रत त्योहारों का सीधा सम्बन्ध सूर्य देवता से जुड़ा है लेकिन एक मात्र त्योहार करवा चौथ का है जिसका पौराणिक सम्बन्ध चांद से है।यूं तो सम्बन्धों के बाजार में आजकल रिश्ते तिजारती हो गये है हर कोई मतलब परस्ती की बस्ती चाहत के साथ जरूरत भर साथ के बाद बदल जाने की अभिनव कला के महारथी हो गये हैं फिर भी दिखावटी बनावटी आधुनिक समाज में बड़प्पन आजकल खूब उफान है!तेजी से बदल रहा हिन्दुस्तान है!करवा चौथ के ब्रत की तैयारी गता न गति के लोक: के तौर पर महामारी की शक्ल अख्तियार कर लिया है,! एक बात समझ में नहीं आती की जब मातृ-शक्ति इतनी सशक्त है! पति भक्त है! और पतियों की सलामती के लिए कटिबद्ध है तो फिर पारिवारिक न्यायलयों में इतनी भीड़ क्यों है!पारिवारिक अदालतों में गहमी गहमा क्यों है! क्या कठिन मौन ब्रत धारण कर खुद के मामलों को घर के चाहर दीवारी के भीतर सुलझाया नहीं जा सकता!बहर हाल ब्रत त्योहार आचार,बिचार पर कोई कमेन्ट नहीं! क्यों की इस पर तो सारा समाज साइलेंट है! लेकिन जिस तरह का परिवेश कायम हो रहा है वह आने वाले दिनों में पाश्चात्य देशों में फैली सभ्यता का अनुगामी होता दिख रहा है।
समय की बदलती गति में सभ्य समाज की क्षति साफ दिख रही है!आपसी मेल जोल आपसी भाई चारा का विलोपन हो रहा है!तेजी से संयुक्त परिवार बिखर रहा है। त्योहारों के आगमन पर बाजारों में भीड़ देख कर तो नहीं लगता की राग द्वेश भेदभाव अपना पराया का मर्माहत करने वाला खेल हर घर में चल रहा है! लेकिन सच्चाई इससे एकदम अलग है!परिवार की परिभाषा आधुनिक समाज में बदल गयी! सभी के विचार की धारा तन्हा निकल गयी!अब किसी से किसी का वास्ता नहीं! सभी का अलग अलग रास्ता है।विघटन वर्तमान समय का सार्वभौम शब्द बन गया है! इसकी पूछ भी बढ़ गयी है।आज के समाज में सभी का सम्मान किर्तिमान स्थापित कर रहा है! दिखावटी अपनापन है! किसी से कोई नहीं डर रहा है! आचार विचार संस्कार का अब कल की बात हो गया है! कुतर्क, अहम, वहम ,सर पर चढ़कर बोल रहा है!स्वार्थ के वशीभूत हर कोई अर्थ का ही वजन तौल रहा है।कभी वक्त था मिट्टी के मकानों में नरम दिल लोग भारतीय संस्कृतियों के मार्गदर्शन में जीवन को जीवन्त ता के साथ जिया करते थे!आज कंकरीट के मकानों में पत्थर दिल लोगों लोगों का बसेरा हो गया!तू जहां जहां भी जाएं मेरा साया साथ होगा! का फ़साना नहीं रहा!अब जमाना बदल गया!मतलब निकल गया है तो पहचानते नहीं! का तराना हर कोई गुन गुना रहा है!साथिया नहीं जाना की जी ना लगे का नगमा कभी परवान चढ़ता था!मगर अब तू नहीं और सही!और नहीं और सही!जी बहलना है तो किसी से भी बहल जायेगा!का फार्मूला ख्वाबों के झूला पर झूला रहा है!एक जमाना था संयुक्त परिवार में मुखिया का आदेश सर्वोपरि था! सामंजस्य ,समरसता,एकता, बेमिसाल हुआ करता था!लेकिन वर्तमान में तो तबाही का तूफान चल रहा है।विखराव की बहसी हवा में भारतीय संस्कृतियों का विनाश हो रहा है!सर्वनाश हो रहा है!लोग अपना धरातल छोड रहे हैं!अपनी पुरातन ब्यवस्था से मुंह मोड़ रहे हैं। वहीं पाश्चात्य देश के लोग हमारी संस्कृति का अनुगामी बन अपनी पाश्चात्य संस्कृति को छोड़ रहे हैं!आने वाला कल विकराल दुर्व्यवस्था का तूफान लिए सब कुछ बर्बाद कर देने के तरफ इशारा करते चला आ रहा है।सम्हल जाओ भाई सम्हालो अपनी परम्परा को अपने मूल का समूल विनाश होने से रोको! वर्ना वक्त कभी माफ नहीं करेगा! जिस भी जाति धर्म के अनुयाई हो उसके संरक्षण के लिए अपने लोगो में जागृति की ज्वाला को हवा दो! वसुधैव कुटुम्ब कम के फार्मूले के साथ ज्योति के महापर्व की रौशनी को धरातल पर उतारो! ज्योति से ज्योति जलाते चलो प्रेम की गंगा बहाते चलो! के साथ ही शान्ती सद्भाव की राह पर चलकर इन्सानियत को जिन्दा रखो वर्ना अभी तो आरम्भ है!अन्त तो मालिक जाने!——–??
सबका मालिक एक🕉️🙏🏾🙏🏾
जगदीश सिंह सम्पादक राष्ट्रीय अध्यक्ष राष्ट्रीय पत्रकार संघ भारत 7860503468