
5-7 मिनट का समय लगेगा पर पढें जरूर।
मैं किसी को पोस्ट को पढ़ने का आग्रह शायद ही करता हूँ पर यह पोस्ट पढ़े जाने, शेयर किए जाने और अपने जीवन मे उतारे जाने योग्य है।
ज़ज्बा जीने का ,
हौसलाआफ़जाई का ,
एक पोस्ट असित कुमार मिश्र की ,
फिर से ,
मेरा दावा पढे़ बगैर नहीं रह सकेगें ,
ना तो असित जी ने कभी हार मानी ,
और ना मैंने ही ,
मजा़ आता है जिंदगीं के संघर्षों से पंजा लडा़ने में ,
एक बार अवश्य ही पढि़ये ,
एक श्रेष्ठ रचना ….!!!
निराश और नाकाम रोगी मिलें…
कहते हैं जिंदगी की सबसे अच्छी कीमत वही लगा सकता है,
जो रोज मरता हो।
जब भी मेरा कोई दोस्त,
विद्यार्थी या कोई भी उदासी,
निराशा,
नाकामी और मरने की बातें करता है तो हँसी आ जाती है।
जीवन की परीक्षाओं में अक्सर सफलता के मैसेज आते रहते हैं इधर कुछ दिनों से उदासियों के मैसेज भी मिल रहे हैं।
राजस्थान के कुछ मित्र हैं,
प्रवक्ता की परीक्षा में असफल हो गए।
एक लड़का है जिसे एक लड़की ने धोखा दे दिया है,
वहीं एक लड़की भी है जिसे एक लड़का धोखा दे गया।
एक व्यवसायी मित्र हैं,
जिनकी कंपनी घाटे में जा रही है…
कुछ लोग और भी होंगे ऐसे ही।
ऐसे सभी लोगों से आग्रह है कि बस दस मिनट के लिए मेरे साथ मेरे बलिया जिले में घूम लीजिए।
फिर मन में आए तो संन्यास ले लीजिएगा या फाँसी लगा लीजिएगा आपकी मर्जी।
जिंदगी आपकी ही है,
मैं कौन हूँ आपको रोकने वाला!
मेरे गाँव से थोड़ी दूर के हैं रविचंद भाई।
सूरत की किसी कंपनी में बिजली का काम करते थे एक दिन सीढ़ियों से फिसल कर बिजली के नंगे तार पर गिर गए।
डाक्टरों ने दोनों बाँहें काट दी।
आठ हजार रुपए में आराम से चल रही जिंदगी ने बिस्तर पकड़ लिया।
पत्नी और बच्चे भूखे मरने लगे तो रविचंद भाई ने चार महीने से कोने में फेंकी साइकिल कपार पर उठाई और चल दिए बाजार।
साइकिल के हैंडल में लोहे का ऐसा कब्जा लगवाया जिसमें वो अपने दोनों हाथ फँसा सकें,
और ब्रेक को पैरों की जगह लगवाया ताकि उन्हें ब्रेक लगाने में सुविधा रहे।
और चल दिए अगले दिन से रोज सुबह नौ बजे,
बड़ी दुकानों का माल छोटी छोटी दुकानों तक पहुंचाने।
धीरे-धीरे उनका काम चल निकला और जिंदगी फिर पटरी पर आ गई।
हमेशा एक बड़ा थैला आगे और चार बड़े थैले पीछे लेकर चलने वाले रविचंद भाई को जब देखता हूँ एक आग सी लग जाती है मेरे अंदर – हौसले की आग, जोश और जुनून की आग।
हर कीमत पर जिंदा रहने की आग।
पाँच साल पहले भी जब राजनीतिक बिसातें बिछ गई थीं एक-एक वोट के लिए साइकिल,मोबाइल और लैपटॉप देने के वादे हो रहे थे तभी एक नेताजी की नज़र हमारे रविचंद भाई पर पड़ी और उन्होंने रविचंद भाई को ‘विकलांग’ घोषित करते हुए बैट्री वाला रिक्शा देने की घोषणा कर दी।
मैं भी वहीं था समझ गया कि आज नेताजी गए।
हुआ भी यही।
रविचंद भाई ने बलियाटिक पगड़ी बांधी और लपक कर नेताजी के पास जाकर उनकी आँखों में देखकर बोले – ए नेताजी! फेर फेर विकलांग कहे न तो यहीं लथार कर बैलेट बाक्स बना देंगे।
आइए न साइकिल रेस कर लीजिए देखिए तो कौन जीतता है…।
हालांकि रेस के पहले ही नेताजी हार गए थे।
वैसे रेस होता भी तो मैं जानता हूँ कि कौन जीतता!
क्योंकि जिंदगी की रेस के विनर हैं रविचंद भाई।
तीन दिन पहले भी मिले थे अपनी उसी ऊर्जा के साथ।
कहने लगे कि माट्साहब!
सुने हैं कि आप कथा कहानी भी लिखते हैं,
हमारी भी कहानी लिखिए न!
मैंने कहा जरुर लिखूँगा।
लेकिन बताइए तो कैसी कहानी लिखूं?
उन्होंने कहा कि एकदम बरियार लभ स्टोरी होनी चाहिए।
अब मैं कैसे कहता उनसे कि रवि भाई आप पर जिंदगी की कहानी लिखी जा सकती है,
प्यार मुहब्बत की नहीं।
फिर रविचंद भाई ने बलियाटिक पगड़ी बाँधी और नंगे पैरों वाला मेरा यह हीरो फोटोजेनिक मोड में आ गया।
अक्सर इनकी इस फोटो को देखता हूँ,
इनके चेहरे के गर्व को देखता हूँ,
इनकी मुस्कान देखता हूँ,
इनकी बलियाटिक पगड़ी को देखता हूँ और इनके कटे हाथों को देखता हूँ फिर जोर से हँस देता हूँ मौत की नाकामी पर।
एक दिन मैंने इनसे एक अशिष्ट सवाल पूछा था – अच्छा रवि भाई!
अगर आपके दोनों पैर भी कट गए होते तब?
रवि भाई ने बिलकुल उसी तरह जवाब दिया था – तब तो हाफ पैंट से ही काम चल जाता।
हई फुल पैंट मोड़ कर चलने में दिक्कत तो नहीं होती… हा हा हा।
मैं हतप्रभ रह गया उनके जवाब पर, उनकी जिजीविषा पर। इसीलिए निराश हताश और आत्महत्या करने वालों पर हँसी आती है मुझे।
एक छोटी सी कहानी और है।
बलिया में आज से तीस साल पहले एक लड़का था।
दिन भर बस क्रिकेट – बस क्रिकेट। पढ़ाई लिखाई कुछ नहीं।
माँ मर गई पिता ने दूसरी शादी की।
और लड़के की जिंदगी और क्रिकेट के बीच समस्या आने लगी। लड़का दिन भर बैट से बाॅल को पीटता था और रात को विमाता उसी बैट से लड़के को।
हाईस्कूल की उम्र में लड़का घर से भाग गया।
भूख लगी तो बनारस में मूंगफली से लेकर सत्तू तक बेचा।
मुम्बई की सड़कों को अपने सवारी गाड़ी से रौंदता रहा लेकिन क्रिकेट के जूनून को नहीं छोड़ा।
साथ में पढ़ने भी लगा।
कड़ी से कड़ी धूप में भी हार नहीं मानी।
सड़कों पर और रेलवे प्लेटफॉर्म पर अपनी कई रातें रंगीन करने वाला वही लड़का आज रेलवे में सरकारी नौकरी करता है खेल कोटे के अंतर्गत।
और देश के बड़े बड़े अंपायरों के साथ टीवी पर भी दिखता है।
उसी का नाम है Narain Jee Gupta
मैंने पूछा था एक दिन कि – गुप्ता भाई! आप हाथों की लकीरों को मानते हैं कि नहीं?
भाई ने हँस कर कहा था – बाबा! मूँगफली भूजने में हाथों की लकीरें कब की जल गईं।
इसीलिए मुझे फिर से लकीरें बनानीं पड़ीं… हा हा हा।
बिना एक पूजा नाम की लड़की का जिक्र किए हुए लेख खत्म करना नहीं चाहता।
एक दिन इनबॉक्स में मैसेज आया था – असित भइया!
मैं भी बलिया की हूँ, डाक्टर ने कहा है कि मुझे मनोचिकित्सक से मिलना चाहिए।
बताइए मैं पागल हूँ?
क्या फायदा ऐसी जिन्दगी का।
मैं सुसाइड करने जा रही हूँ… बस लटकने जा रही हूँ पंखे से।
मैंने पूछा कि- हुआ क्या है ये तो बताती जा।
उसने लिखा कि – मैं बहुत प्यार करती हूँ उससे लाखों रुपये दिए उसके माँगने पर।
और अब वो कहता है कि मुझसे कोई मतलब ही नहीं।
मुझे पता नहीं कैसे राजेश रेड्डी साहब का यह शेर याद आ गया उसी समय –
जिन्दगी बख्शेगी मर जाने के बेहतर मौक़े।
उससे कहिए अभी मर जाने का इरादा न करे।।
मैंने कहा कि – सुन भाई,पंखा तेरा ही है न?
रस्सी तेरी ही है न?
दस मिनट बात कर ले फिर आराम से मर जाना।
कौन सी तेज़ी है!
लड़की ने बात की।
घंटे भर बात की, रोई भी, सिसकी भी, मुझ पर चीखी चिल्लाई भी।
मैं हैरान रह गया एक सुपर ब्रेन, पचासों हजार रुपये महीना कमाने वाली, बड़े शहर में रह रही इस लड़की के छले जाने की कहानी पर।
लेकिन अगले दिन उसने मैसेज किया। बस एक लाइन में- असित भइया मुझे जीना है… मैं जीना चाहती हूँ।
आज भी वह पूजा हजारों रुपए खर्च करती है।
लेकिन अब गरीब लड़कियों और बेसहारों पर।
अब उसे किसी इलाज की जरूरत ही नहीं वो खुद जिंदगी है बहुत से लोगों की।
फोटो भी लगाती है अब अपनी मुस्कुराते हुए।
यहाँ भी आएगी और हँसी बिखेर जाएगी।
और मैं हमेशा की तरह कहूँगा सुन भाई!
पंखा तेरा ही है न?
रस्सी तेरी ही है?
मैं नहीं जानता कि यहाँ तक पढ़ते पढ़ते आपके मन में क्या भाव आ रहे होंगे?
लेकिन एक बात कहूँगा कि नौकरी व्यवसाय या कोई भी चीज़ आपकी जिंदगी से बढ़कर नहीं।
अगर आपके दोनों हाथ – पैर सलामत हैं तो आपको निराश होने की जरूरत नहीं।
अगर एक हाथ नहीं है तब भी उदास होने की जरूरत नहीं।
अगर दोनों हाथ नहीं हैं तब भी हताश होने की जरूरत नहीं।
अगर दोनों हाथ – पैर नहीं हैं तो याद है न रवि भाई का जवाब?
उठिए!
सोचिए मत।
नरेन जी गुप्ता (लाल हाफ पैंट में) की तरह अपनी किस्मत खुद लिखनी है आपको।
किसी पूजा नाम की लड़की की तरह औरों की खुशी बनिए औरों की जिंदगी बनिए।
हताशा में या निराशा में या प्यार मुहब्बत में मरने वाले कहानी बन सकते हैं जिंदगी नहीं।
पूजा ने कहा था एक दिन कि- असित भइया आपकी जीवनी लिखनी है मुझे।
पूजा!
नहीं जानता कि जीवनी लिखने लायक मैं बन भी सकूँगा या नहीं। लेकिन फिर भी मेरी जीवनी लिखना तुम।
और पूरे दो सौ पन्ने की जीवनी लिखना।
लेकिन एक सौ निन्यानवे पन्ने खाली छोड़ देना और आखिरी पन्ने पर बस एक लाइन लिखना कि – राज कुमार ने कभी हार नहीं मानी.
साभार – शिवम् राज गोरखपुरी