मैं नर्मदा हूं । जब गंगा नहीं थी , तब भी मैं थी । जब हिमालय नहीं था , तभी भी मै थी । मेरे किनारों पर नागर सभ्यता का विकास नहीं हुआ । मेरे दोनों किनारों पर तो दंडकारण्य के घने जंगलों की भरमार थी । इसी के कारण आर्य मुझ तक नहीं पहुंच सके । मैं अनेक वर्षों तक आर्यावर्त की सीमा रेखा बनी रही । उन दिनों मेरे तट पर उत्तरापथ समाप्त होता था और दक्षिणापथ शुरू होता था । मेरे तट पर मोहनजोदड़ो जैसी नागर संस्कृति नहीं रही , लेकिन एक आरण्यक संस्कृति अवश्य रही । मेरे तटवर्ती वनों मे मार्कंडेय , कपिल , भृगु , जमदग्नि आदि अनेक ऋषियों के आश्रम रहे । यहाँ की यज्ञवेदियों का धुआँ आकाश में मंडराता था । ऋषियों का कहना था कि तपस्या तो बस नर्मदा तट पर ही करनी चाहिए । इन्हीं ऋषियों में से एक ने मेरा नाम रखा , ” रेवा ” । रेव् यानी कूदना । उन्होंने मुझे चट्टानों में कूदते फांदते देखा तो मेरा नाम ” रेवा ” रखा । एक अन्य ऋषि ने मेरा नाम ” नर्मदा ” रखा । ” नर्म ” यानी आनंद । आनंद देनेवाली नदी । मैं भारत की सात प्रमुख नदियों में से हूं । गंगा के बाद मेरा ही महत्व है । पुराणों में जितना मुझ पर लिखा गया है उतना और
किसी नदी पर नहीं । स्कंदपुराण का ” रेवाखंड ” तो पूरा का पूरा मुझको ही अर्पित है । ” पुराण कहते हैं कि जो पुण्य , गंगा में स्नान करने से मिलता है , वह मेरे दर्शन मात्र से मिल जाता है । ” मेरा जन्म अमरकंटक में हुआ । मैं पश्चिम की ओर बहती हूं । मेरा प्रवाह आधार चट्टानी भूमि है । मेरे तट पर आदिमजातियां निवास करती हैं । जीवन में मैंने सदा कड़ा संघर्ष किया । मैं एक हूं , पर मेरे रुप अनेक हैं । मूसलाधार वृष्टि पर उफन पड़ती हूं , तो गर्मियों में बस मेरी सांस भर चलती रहती है । मैं प्रपात बाहुल्या नदी हूं । कपिलधारा , दूधधारा , धावड़ीकुंड , सहस्त्रधारा मेरे मुख्य प्रपात हैं । ओंकारेश्वर मेरे तट का प्रमुख तीर्थ है । महेश्वर ही प्राचीन माहिष्मती है । वहाँ के घाट देश के सर्वोत्तम घाटों में से है । मैं स्वयं को भरूच ( भृगुकच्छ ) में अरब सागर को समर्पित करती हूँ । मुझे याद आया । अमरकंटक में मैंने कैसी मामूली सी शुरुआत की थी । वहां तो एक बच्चा भी मुझे लांघ जाया करता था पर यहां मेरा पाट 20 किलोमीटर चौड़ा है । यह तय करना कठिन है कि कहां मेराअंत है और कहां समुद्र का आरंभ ? पर आज मेरा स्वरुप बदल रहा है । मेरे तटवर्ती प्रदेश बदल गए हैं मुझ पर कई बांध बांधे जा रहे हैं । मेरे लिए यह कष्टप्रद तो है पर जब अकालग्रस्त , भूखे – प्यासे लोगों को पानी , चारे के लिए तड़पते पशुओं को , बंजर पड़े खेतों को देखती हूं , तो मन रो पड़ता है । आखिर में माँ हूं । मुझ पर बने बांध इनकी आवश्यकताओं को पूरा करेंगें । अब धरती की प्यास बुझेगी । मैं धरती को सुजला सुफला बनाऊंगी । यह कार्य मुझे एक आंतरिक संतोष देता है ।
❤त्वदीय पाद पंकजम , नमामि देवी नर्मदे … नर्मदे सर्वदे❤
( अमृतस्य नर्मदा ) लेख, अमूल्य रत्न न्यूज ब्यूरो चीफ कुशीनगर