मेरा नाम सविता है। शादी को बीस साल बीत चुके हैं, लेकिन आज भी जब मैं अपने ससुर की तस्वीर देखती हूँ, तो दिल में कुछ भारी-सा महसूस होता है।
मेरे ससुर हरिदास जी गाँव के एक साधारण किसान थे।
उनके पास न कोई सरकारी नौकरी थी, न पेंशन। ज़िंदगी का ज़्यादातर हिस्सा उन्होंने खेतों में गुज़ारा।
मिट्टी से उनका रिश्ता इतना गहरा था कि उनके हाथों की लकीरों में भी धूल जमी रहती थी।
जब मैं इस घर में ब्याहकर आई थीl तब तक मेरी सास का देहांत हो चुका था।
तीन बेटे थे—सबसे बड़ा मेरा पति, जो शहर में काम करता था, और दो छोटे जो अपने-अपने घरों में बस चुके थे।
पिता जी अकेले रह गए थे, और उन्हें किसी की देखभाल की सख्त ज़रूरत थी।
शुरुआत में मैंने सोचा था कुछ महीने तक देखभाल कर लूँगी, फिर सब मिलजुल कर ज़िम्मेदारी बाँट लेंगे।
लेकिन धीरे-धीरे एहसास हुआ कि “मिलजुल” सिर्फ एक शब्द है—करने वाली तो बस मैं ही हूँ।
दिन रात का फर्क मिट गया था।
सुबह उठते ही सबसे पहले उनकी दवा, फिर नाश्ता, फिर खेतों का हाल पूछना।
वो अब काम नहीं करते थे, पर हर बीज और मौसम का हिसाब उन्हें ज़ुबानी याद रहता।
कभी-कभी थककर सोचती, “आखिर ये सब कब तक?”
लेकिन हर बार जब वो मेरे सिर पर हाथ रखकर कहते,
“सविता, तेरे जैसी बहू किसी-किसी को मिलती है…” तो सारी थकान गायब हो जाती।
मेरा पति महीने में एक बार आता।
बाकी समय मैं और पिता जी, यही हमारा छोटा-सा संसार था। उनकी खाँसी, उनकी मुस्कान, और वो पुराने रेडियो पर बजता रामचरितमानस—यही मेरा घर था।
समय के साथ पिता जी की उम्र बढ़ती गई, और मैं भी उनकी जरूरतों को समझने लगी।
सर्दियों में जब ठंडी हवा चलती, तो मैं उनके लिए मोटा कंबल और मोजे निकाल देती।
गर्मी में जब वो खाँसते, तो मैं तुलसी और शहद का काढ़ा बनाती।
कभी उनकी पुरानी कहानियाँ सुनती, तो कभी उन्हें हँसाने की कोशिश करती।
घर के बाकी लोग कहते, “सविता, अब तो छोड़ भी दो, इतनी उम्र में क्या सेवा करनी?
पर मैं मुस्कुरा देती थी, क्योंकि मुझे लगता था कि शायद मैं यही करने के लिए बनी हूँ।
वक़्त किसी के लिए नहीं रुकता। 85 की उम्र में उनके शरीर ने जवाब देना शुरू कर दिया।
एक सुबह उन्होंने मुझे बुलाया—उनकी आवाज़ बहुत धीमी थी। “बिटिया, वो पुराना संदूक ले आ…” मैंने सोचा शायद दवा या पुरानी चिट्ठियाँ होंगी।
उन्होंने काँपते हाथों से उस लकड़ी के संदूक पर हाथ रखा, और बोले—“जब मैं न रहूँ, तो इसे खोलना… सिर्फ तुम।”
कुछ घंटे बाद ही उन्होंने दुनिया छोड़ दी।
आँगन में सन्नाटा फैल गया।
मैं बस चुप बैठी रही, जैसे भीतर कुछ टूट गया हो। तीन दिन बाद, जब सब रस्में पूरी हुईं, मैं अकेली कमरे में गई।
वो पुराना संदूक वहीं रखा था—धूल से भरा, किनारों पर जंग लगी हुई। काँपते हाथों से मैंने उसे खोला।
अंदर पुराने कपड़े, कुछ मिट्टी के सिक्के, और एक कपड़े में लिपटा लिफ़ाफ़ा था।
लिफ़ाफ़े पर लिखा था—“मेरी बहू सविता के लिए।” लिफ़ाफ़ा खोला तो उसमें कुछ रुपये और एक छोटा-सा नोट था।
लिखा था—“ये पैसे नहीं हैं, ये मेरी मेहनत की आख़िरी बचत है।
जब खेत बिक गए, तो यही मैंने संभालकर रखे थे।
तेरे जैसे हाथों में ये सुरक्षित रहेंगे।
तूने मुझे अपने पिता की तरह संभाला, वरना मैं अकेला ही चला जाता।” मेरी आँखों से आँसू बह निकले।
वो पैसे मेरे लिए दौलत नहीं थे—वो तो एक पिता का प्यार था, जो मुझे विरासत में मिला था।
मैंने संदूक को फिर बंद किया और उसके ऊपर दीपक जला दिया। उस पल मुझे एहसास हुआ कि मेरे जीवन की सबसे बड़ी कमाई वही थी—एक बुज़ुर्ग का आशीर्वाद।
आज इतने सालों बाद भी वो संदूक मेरे कमरे के कोने में रखा है।
मेरे बच्चे अक्सर पूछते हैं, “माँ, वो पुराना संदूक अब भी क्यों संभालकर रखा है?”
मैं मुस्कुरा देती हूँ—“क्योंकि उसमें सिर्फ लकड़ी नहीं है बेटा, उसमें एक इंसान का आशीर्वाद बसा है।”
आज जब कोई मुझे पूछता है, “तुम्हें अपने ससुर से क्या मिला?”
तो मैं सिर झुकाकर कहती हूँ, “मुझे उनके दिल की दौलत मिली है।” रिश्ते खून से नहीं, कर्म से बनते हैं।
बहू या बेटी का फर्क मिट जाता है,
जब दिल से निभाई गई सेवा में स्वार्थ की जगह स्नेह बस जाए।
Sabita singh lucknow
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