
जीवन में एक समय ऐसा आता है जब हमारी दुनिया बदल जाती है।
माँ–बाप में से कोई एक हमें छोड़कर चला जाता है।
जो चला गया वह तो दुखों से मुक्त हो जाता है,
लेकिन असली परीक्षा उस इंसान की होती है
जो पीछे रह जाता है।
यह सच है कि कौन पहले जाएगा और कौन बाद में
यह तो केवल भगवान ही जानते हैं।
लेकिन जब घर में एक साथी छूट जाता है, तो पीछे रह जाने वाले माँ या बाप की स्थिति बहुत कठिन हो जाती है।
उनकी आँखों से आँसू बहना, यादें दिल में उमड़ना, अकेलापन चुभना – यह सब बिल्कुल स्वाभाविक है।
पर सवाल यह उठता है –
उन आँसुओं को पोंछेगा कौन?
उनके टूटे हुए दिल को सहलाएगा कौन?
उनकी पीठ पर स्नेह से हाथ फेरने वाला होगा कौन?
इस स्थिति में जिम्मेदारी बेटों, बेटियों, बहुओं और परिवार के हर सदस्य की होती है।
यह समय होता है जब बच्चों को अपने माँ–बाप के माँ–बाप बनना चाहिए।
बचपन में उन्होंने हमारे आँसू पोंछे थे।
बीमारी में अनगिनत रातें जागकर हमारे सिर पर हाथ रखा था।
खुद भूखे रहकर हमें खिलाया था।
अपनी इच्छाओं और सपनों को कुर्बान करके हमें खुश किया था।
आज अगर वही माँ–बाप अकेले रह जाएँ,
तो क्या हम उन पर ध्यान न दें?
👉 यही वह समय है जब हमें उनकी परवरिश करनी चाहिए।
जिस तरह उन्होंने हमें खिलौने दिलाने के लिए अपनी क्षमता से अधिक मेहनत की थी,
आज हमें उनकी खुशियों के लिए अपनी क्षमता से अधिक समर्पण करना चाहिए।
यहाँ एक बड़ा भ्रम समाज में फैला हुआ है कि माता–पिता की देखभाल केवल बेटे की जिम्मेदारी है।
लेकिन सच यह है कि –
यह कर्तव्य केवल बेटों–बेटियों का नहीं बल्कि हर रिश्तेदार, हर बहू, हर दामाद, यहाँ तक कि हर दोस्त का भी है।
जब कोई माँ या बाप अकेले रह जाते हैं,
तो उन्हें केवल छत, खाना और दवाई की सुविधा देने से जिम्मेदारी पूरी नहीं होती।
उन्हें चाहिए – समय, प्यार और अपनापन।
एक माँ या पिता जब जीवनसाथी को खोते हैं,
तो उनकी आत्मा आधी हो जाती है।
वो बातें, वो हँसी, वो संगत – सब अधूरी हो जाती है।
ऐसे समय में उन्हें चाहिए कोई ऐसा जो उनसे बात करे,
उनकी पुरानी यादें सुने,
उन्हें हँसाए,
और उन्हें महसूस कराए कि वह अकेले नहीं हैं।
वरना केवल खाना खिलाना और पैसे खर्च करना, यह तो अधूरा कर्तव्य है।
वो जीते भी हैं तो सिर्फ औपचारिकता के लिए,
लेकिन सच्चे अर्थों में जीना तभी होता है जब उन्हें अपनेपन का एहसास हो।
जीवनसाथी को खोने का दर्द शब्दों और आँसुओं से भी गहरा होता है।
यह दर्द केवल वही समझ सकता है जिसने अपना साथी खोया हो।
दिन–रात का साथ, जीवन की हर छोटी–बड़ी बातें, जिम्मेदारियों का बोझ
जब अचानक आधा हो जाता है, तो इंसान भीतर से टूट जाता है।
यह दर्द कभी दिखता नहीं,
लेकिन यह हर समय उनकी आँखों, उनकी खामोशी और उनके चेहरे पर लिखा रहता है।
और ऐसे समय में अगर परिवार और बच्चे सहारा न दें,
तो वह इंसान सचमुच टूटकर बिखर सकता है।
हमारे समाज में अक्सर यह देखा जाता है कि जब किसी माँ या पिता का जीवनसाथी गुजर जाता है,
तो शुरू के कुछ दिनों तक तो रिश्तेदार और दोस्त साथ देते हैं,
लेकिन धीरे–धीरे सब अपनी–अपनी जिंदगी में व्यस्त हो जाते हैं।
मगर यह गलत है।
👉 इस परिस्थिति में हमें उन्हें लगातार साथ देना चाहिए।
उनसे मिलने जाना, उनका हालचाल पूछना,
कभी उनके लिए खाना ले जाना,
कभी उन्हें बाहर घूमाने ले जाना
ये सब छोटे–छोटे कदम उनके दिल को बड़ा सुकून देते हैं।
सोचो अगर हम उस स्थिति में हों,
जहाँ हमारा जीवनसाथी हमें छोड़कर चला जाए,
तो हमें सबसे ज्यादा क्या चाहिए होगा?
पैसा? नहीं।
सुविधाएँ?
नहीं।
👉 हमें चाहिए होगा
अपने बच्चों का साथ,
उनका समय,
उनके दिल से निकले हुए मीठे शब्द,
और यह एहसास कि हम अब भी अकेले नहीं हैं।
यह मत भूलो कि जिंदगी का चक्र सबके लिए समान है।
आज हमारे माँ–बाप इस स्थिति में हैं,
कल यही स्थिति हमारी भी हो सकती है।
इसलिए अगर हम आज अपने माता–पिता का साथ देंगे,
तो कल हमारे बच्चे भी हमसे वही सीखेंगे।
अगर हम उन्हें समय देंगे,
तो कल हमें भी समय मिलेगा।
यह पीढ़ी दर पीढ़ी चलने वाला संस्कार है।
अंत में यही कहा जा सकता है कि
सिर्फ छत और खाना देना कर्तव्य नहीं है।
बल्कि माता–पिता को प्यार, ममता और अपनापन देना ही असली कर्तव्य है।
उनकी खामोशी सुनो,
उनके दिल का दर्द समझो,
और उन्हें यह एहसास दिलाओ कि
“तुम अकेले नहीं हो, पूरा परिवार तुम्हारे साथ है।”
और हा जीवन में माँ–बाप के लिये भी माँ–बाप बनना आना चाहिए..
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