
-कुछ तथ्य जानने योग्य तथा विचारणीय
सुभाष चंद्र बोस को कांग्रेस अध्यक्ष
चुने जाने के बाद भी महात्मा गाँधी
द्वारा अध्यक्ष न मानना लोकतंत्र की
पहली हत्या थी जिसके कारण अंततः
नेताजी ने कांग्रेस छोड़ दी थी।
-सरदार पटेल के निर्वाचित
उम्मीदवार होने के बावजूद पंडित
नेहरू को पीएम बनाया गया:
यह लोकतंत्र की दूसरी हत्या थी।
– इंदिरा गांधी ने आपातकाल की
घोषणा की,सभी विपक्षी नेताओं
को जेल में डाल दिया और प्रेस
पर प्रतिबंध लगा दिया:
यह लोकतंत्र की तीसरी हत्या थी।
– संजय गांधी का नसबंदी
कार्यक्रम: यह लोकतंत्र की
चौथी हत्या थी।
-राजीव गांधी ने सुप्रीम कोर्ट
के शाहबानो फैसले को पलटा:
यह लोकतंत्र की पाँचवी हत्या थी।
– कांग्रेस अध्यक्ष बनने के लिए सोनिया
गांधी ने सीताराम केसरी को बाथरूम
में बंद कर दिया: यह लोकतंत्र की छठी
हत्या थी।
-सीताराम केसरी की धोती खोलकर
उन्हें अंडरवियर में ही कांग्रेस दफ्तर
से उठकर बाहर फेंक दिया गया और
उसके बाद वह गुमनामी में कहां खो
गए किसी को पता नहीं चला:-
यह लोकतंत्र की सातवीं हत्या थी।
– पूर्व प्रधानमंत्री नरसिंह राव के पार्थिव
शरीर को कांग्रेस दफ्तर में घुसने नहीं
दिया गया और उनके पार्थिव शरीर
का अंतिम संस्कार दिल्ली में नहीं
करने दिया गया सिर्फ इसलिए कि
कहीं नेहरू इंदिरा और राजीव के
तर्ज पर नरसिंह राव का भी स्मारक
दिल्ली में ना बन पाए:- यह लोकतंत्र
की आठवीं हत्या थी।
– राहुल गांधी ने प्रधानमंत्री
मनमोहन सिंह द्वारा लाए गए
अध्यादेश को खारिज कर दिया
और कैबिनेट के अध्यादेश को
मंच पर फाड़ कर फेंक दिया:
यह लोकतंत्र की नवी हत्या थी।
– सभी INDI गठबंधन शासित
राज्यों में अति-आलोचना के
कारण दक्षिणपंथियों के खिलाफ
एफआईआर: लोकतंत्र की नियमित
हत्याएं।
यह परिवार और उनके वफादार
लोकतंत्र पर हमले की बात कर रहे हैं,
यह वैसा ही है जैसे पाकिस्तान
आतंकवाद की निंदा करता है।
अमूल्यरत्न न्यूज सम्पादक बरनवाल संतोष नयन
मेरे एक घनिष्ठ मित्र सरकारी बैंक में मैनेजर हैं.
तो, एक बार यूँ ही बैठे-बैठे मैंने उनसे पूछ लिया कि… अच्छा अनिल जी..!
मान लो, कोई बैंक से कर्ज ले ले और भाग जाए तो क्या होगा ??
इस पर अनिल ने सिम्पली कहा कि : क्या होगा ?
कुछ नहीं.
उनका जबाब सुनकर मैंने आश्चर्य से पूछा : अरे, बैंक केस-उस नहीं करेगा ?
तो, मित्र ने कहा : बैंक तो करबे करेगा.
नोटिस भी देगा और केस भी करेगा.
लेकिन, उससे होना-जाना कुछ नहीं है.
क्योंकि, जब सामने वाला भागिए जाएगा तो केस किस पर करेगा..?
और, उसको खोजेगा कहाँ ??
तो, फिर मैंने पूछा : तब तो बैंक का बहुत पैसा डूबता होगा इसमें ?
मित्र : डूबबे करता है.
माल्या-फाल्या भागा कि नहीं भागा ??
इसके बाद उन्होंने कहा कि : जानते हो ?
अगर तुम बेईमान हो और बैंक का पैसा लेकर एकदम भागिए जाओगे तो फिर बैंक कुछ नहीं कर पायेगा.
या फिर उल्टे, बैंक वाले तुम्हारे ही हाथ-पैर जोड़ेंगे कि… थोड़ा कम-बेसी में एकाउंट सेटलमेंट करवा लें.
लेकिन, अगर तुम ईमानदार हो और बैंक का कर्ज लौटाना चाहते हो..
लेकिन, आर्थिक क्राइसिस में फंसे हुए हो तो फिर बैंक वाले तुम्हें नोच खाएंगे..!
रोज दो नोटिस पकड़ा देगा या फोन कर देगा कि इस महीने क़िस्त क्यों नहीं भरे ???
तुम्हारा जीना हराम कर देंगे.
हालांकि ये कहानी तो उसने बताई थी बैंक की.
लेकिन, जब मैं सोचता हूँ तो मुझे लगता है कि उसने ये चित्रण बैंक का नहीं बल्कि हमारे समाज का कर दिया था.
उदाहरण के तौर पर…. हमारे भारत में जो समाज बेईमान या कहें कि हिंसक है उसके बारे में तो किसी को बोलने की हिम्मत नहीं होती है कि … हाँ, वो हिंसक है.
लेकिन, जो ईमानदार अर्थात सहिष्णु हैं उन्हें रोज हिंसक बताया जाता है.
कारण बिल्कुल स्पष्ट है कि… अगर वे हिंसक को हिंसक कहेंगे तो दुबारा कुछ कहने के लिए बचेंगे ही नहीं.
जबकि, इधर वाले को वे कुछ भी कहकर आराम से हंसी-ठिठोली कर सकते हैं.
और, उसके हिंसक कहने पर अपने नेता मोई और शाह को सभापति से आपत्ति दर्ज करवाते देख जो हंसी उड़ा रहे हैं..
वे अच्छी तरह से समझ लें कि… मोई और शाह तो चलो कम से कम इतना भी कर रहे हैं.
लेकिन, तुम क्या कर रहे हो ???
क्योंकि, उसने मोई या शाह को नहीं बल्कि पूरे समाज को बोला था.
यहाँ, क्या कर रहे हो से तात्पर्य है कि…. अगर उसने कहीं कटेशर समुदाय को हिंसक या जे हादी कह दिया होता तो आज सारी सड़कें विरोध से पट गई होती..
और, गली-गली में उसके सर, टन से सुदा के नारे लग रहे होते.
स्थिति इतनी खराब हो चुकी होती कि… आज वो गली-गली घूम के अपनी जान की भीख मांग रहा होता.
और, प्रधानमंत्री-राष्ट्रपति वगैरह संसद में आपत्ति दर्ज करवाने की जगह शांति की अपील कर रहे होते.
लेकिन, वे अच्छी तरह जानते हैं कि किसे क्या बोला जाना है.
इसीलिए, इस पक्ष के नेता को इस अपमान पर खून का घूंट पीकर सिर्फ आपत्ति दर्ज करवाने तक ही सीमित रह जाना पड़ता है.
ये उनके लिए नहीं… बल्कि, हमारे लिए.. हमारे पूरे समाज के लिए शर्म की बात है.
और, कटेशरों को क्यों ??
उसने , अगर हिन्दू की जगह बाभन, राजपूत, दलित, गुर्जर आदि में से भी किसी का नाम ले लिया होता तो आज सड़कों पर तांडव हो रहा होता.
लेकिन, हिन्दू नाम से किसी के खून में कोई उबाल नहीं आया.
सुनने में तो बुरा लगेगा… लेकिन, हमारे समाज की यही सच्चाई है जिसे मोई जी अच्छी तरह जानते हैं.
इसीलिए, वे लोग ज्यादा आक्रामक नहीं होते हैं.
क्योंकि, आखिर वे आक्रामक फैसला लें भी तो आखिर किसके दम पर ???
क्या अपने उसी समाज के दम पर….
जिसके लिए अपने स्वाभिमान से ज्यादा फ्री की बिजली, सब्सिडी वाली पेट्रोल और एक छोटी-मोटी सरकारी नौकरी की चिंता रहती है ????
जय महाकाल…!!!
अमूल्यरत्न न्यूज सम्पादक – बरनवाल संतोष नयन